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नहीं हुए हैं। इसलिए उनकी सहजता अज्ञानता के कारण है। अज्ञ सहज अर्थात् जो प्रकृति स्वभाव है उसमें ही तन्मयाकार रहना, दखल नहीं करना, वह।
प्राकृतिक डेवेलपमेन्ट में अथवा अज्ञानता में प्रकृति एकदम सहज लगती है, कोई बैर भाव नहीं, दखल नहीं, संग्रह करने की वृत्ति नहीं, जैसा है वैसा बोल देते हैं, मानो कि आत्मज्ञानी के जैसा सरल व्यवहार हो वैसा ही लगता है। फिर भी वह पूर्णाहुति नहीं है। शुरुआत में नियम से प्रकृति सहज में से असहज होती है। एक-एक पुद्गल परमाणुओं का अनुभव करता है, फिर वही वापस ज्ञानी के पास से या तीर्थंकर के पास से आत्मज्ञान प्राप्त करता है और खुद की असहजता को खाली करतेकरते संपूर्ण रूप से सहज हो जाता है और फिर मोक्ष चला जाता है।
यह प्राकृत सहज ऐसी चीज़ है कि जिसमें बिल्कुल भी जागृति नहीं रहती। भीतर से जो उदय में आया उसके अनुसार व्यवहार करना, उसे सहज कहते हैं।
प्राणियों में और बालक में लिमिटेड बुद्धि होती है, वहाँ सहज स्वभाव होता है और ज्ञानी की तो बुद्धि ही खत्म हो गई होती है, इसलिए ज्ञानी तो बिल्कुल सहज होते हैं।
यह अज्ञानता में सहज है, उसमें से जैसे-जैसे क्रोध-मान-मायालोभ बढ़ते जाते हैं वैसे-वैसे ज़्यादा असहज होते जाते हैं। असहजता में टॉप पर जाने के बाद जलन को पूरी तरह से देखता है, अनुभव करता है, उसके बाद निश्चित करता है कि पैसे में सुख नहीं है, स्त्री में सुख नहीं है, बच्चों में सुख नहीं है, इसलिए अब यहाँ से भागो, ऐसी जगह पर जहाँ कुछ मुक्त होने की जगह है, वहाँ। तीर्थंकर मुक्त हुए, उस रास्ते पर चलो। यह संसार अब नहीं पुसाता, फिर मोक्ष जाने का भाव हो जाता है।
[3] असहज का मूल गुनहगार कौन? मूल आत्मा सहज ही है। आत्मज्ञान की प्राप्ति के बाद यदि खुद
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