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वाग्भटालंकार के व्याख्याकार श्री सिंहदेवमणि ने भी यही निर्देश किया है।' इनके अतिरिक्त व्याख्याकार जिनवर्धनसरि एवं क्षमहंसगणि ने भी इसकी पुष्टि की है। प्रभावकचरित में कई स्थलों पर वाहड के स्थान पर थाहड का प्रयोग प्राप्त होता है तथा ज्ञात होता है कि वाग्भट प्रथम धनवान तथा उच्चकोटि के श्रावक थे। एक बार इन्होंने स्वयं द्वारा किसी प्रशंसनीय कार्य मे धन व्यय करने हेतु गुरू से आशा माँगी । गुरूने जिनमंदिर बनवाने में व्यय किये गये धन को सफलीभूत बतलाया था, तद्नंतर गुरु की आज्ञानुसार वाग्भट ने एक भव्य जिनालय का निर्माण कराया था जिसमें विराजमान वर्धमान स्वामी की प्रतिमा अद्भुत शोभा से युक्त थी, जिसके तेज से चन्द्रकान्त एवं सूर्यकान्त मणि की प्रभा फीकी पड़ गई 3 थी।
" वाग्भटालंकार" के उदाहरणों में कर्णदेव के पुत्र अनहिलपट्टन के चालुक्यवंशी राजा जयसिंह की स्तुति पायी जाती है।" इससे यह निश्चित हो
1. "इदानीं ग्रन्थकारः इदमलंकारर्तृत्वरव्यापनाय वाग्भटाभिधस्य महाकवेर्महामात्यस्य तन्नाम गा ययैकया निदर्शयति । *
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2.
वाग्भटालंकार, पृ. 95
अथासितो थाडो नाम धनवान् धार्मिका गुणी : प्रभावकारित वादिदेवसरिचरित, 67 प्रभावक वादिदेवसरिचरित, 67-70
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4. (क) जगदात्मकीर्तिनं जनयन्नुद्दामधामदो : परिधः |
जयति प्रतापपूषा जयसिंह क्षमाभूदधिनाथः । । वाग्भटालंकार 4-45 अलहिल्लपाटकं पुरमवनिपति: कर्पदेवनृप सूनुः ।
TO 4-131
श्री कलशनामधेय : करी च जगतीह रत्नानि ।। (ख) इन्द्रेण किं यदि स कर्पनरेन्द्रसूनु:, एरावतेन किमहो यदि तद्विपेन्द्रः दम्भोलिनाप्यलमूलं यदि तत्प्रतापः, स्वर्गोऽप्ययं ननुमुधा यदि तत्पुरी सा वहीं, 4/75
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