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प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में उक्त जैनाचार्यों में से, छ: प्रमुख जैनाचार्योआचार्य वाग्मट प्रथम, आचार्य हेमचन्द्र, आचार्य रामचन्द्र-गुपचन्द्र , आचार्य नरेन्द्रप्रभसूरि, आचार्य वाग्भट द्वितीय एवं आचार्य मावदेवतरि के गन्थों - क्रममाः “वाग्भटालंकार', "काव्यानुशासन", "नाट्यदर्पप", "अलंकारमहोदधिः, "काव्यानुशासन एवं "काव्यालंकारसार' - के आधार पर संस्कृत काव्यशास्त्र मैं उनके योगदान का उल्लेख किया गया है।
आचार्य वाग्भट प्रथम
संस्कृत काव्यशास्त्र के क्षेत्र में आचार्य वाग्भट प्रथम की प्रसिद्धि उनके द्वारा प्रपीत गन्ध वाग्भटालंकार" के कारण है। इनके सम्बन्ध में इतना तो निस्सन्दिग्ध है कि ये जैनधर्मानुयायी थे। "वाग्भटालंकार' का प्रारम्भ मंगल जैनधर्म तथा जनदर्शन के पति वाग्भट की आस्था व मनस्तुष्टि का परिचायक है।' यद्यपि आचार्य वाग्भट प्रथम एवं आचार्य हेमचन्द्र दोनों समका लिक हैं तथापि काल की दृष्टि से वाग्भट प्रथम हेमचन्द्र के पूर्ववर्ती हैं, किन्तु वाग्भट प्रथम की अपेक्षा आचार्य हेमचन्द्र को अधिक प्रसिद्धि प्राप्त हुई है, इसलिये कुछ विद्वानों ने आचार्य हेमचन्द्र को पूर्व में स्थान दिया है एवं वाग्भट प्रथम को पश्चात में।2
"वाग्भटालंकार' प्रपेता वाग्भट को वाग्भट प्रथम कहना आवश्यक है क्योंकि इसी नाम के एक और आलंकारिक हो चुके हैं जिन्होंने"काव्यानुशासन"
1. "त्रियं द्विशत वो देवः श्रीनामेय जिन ः सदा।
___ वाग्भटालंकार, 1/1 द्रष्टव्य - संस्कृत साहित्य का इतिहास - अनमंगलदेव शास्त्री , पृ. 468 हटव्य - अलंकार धारपा विकास व विश्लेषप,
पु. 224 व पू. 229