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प्राकृत भारती
इन तीनों तत्वों का समावेश हो गया है । इस ग्रन्थ का सांस्कृतिक महत्व भी है । इस ग्रन्थ की कुछ कथाओं अथवा घटनाओं को लेकर प्राकृत, अपभ्रंश में आगे चलकर कथाएँ लिखी गयी हैं । अतः प्राकृत कथा साहित्य का यह आधार ग्रन्थ है |
समराइच्चकहा- यह प्राकृत कथा साहित्य का सशक्त ग्रन्थ है । आचार्य हरिभद्रसूरि ने लगभग ८वीं शताब्दी में चित्तौड़ में इस ग्रन्थ की रचना की थी । इस ग्रन्थ की कथा का मूल आधार अग्निशर्मा एवं गुणसेन के जीवन की घटना है । अपनान से दुखी होकर अग्निशर्मा प्रतिशोध की भावना मन में लाता है । इस निदान के फलस्वरूप ९ भवों तक वह गुणसेन के जीव से बदला लेता है । वास्तव में समराइच्चकहा की कथावस्तु सदाचार और दुराचार के संघर्ष की कहानी है । प्रसंगवश इसमें अनेक कथाएँ भी गँथी हुई हैं ।
समराइच्चकहा में प्राकृत गद्य एवं पद्य दोनों का प्रयोग हुआ है । कथाकार का कवित्व इस ग्रन्थ में पूरी तरह प्रकट हुआ है । एक स्थान पर राजा की बीमारी से व्याकुल अन्तःपुर का वर्णन करते हुए कथाकार कहता है
तहा मिलाणसुरहिमल्लदा मसोहं सुवण्णगडबिलिव गरायं बाहजलघोयकवोलपत्तलेह, करयलपणांमियपव्वायवयणपंकयं उब्विग्गमन्तेउरं ।
- प्रथम भव, पृ० २४ । समराइच्च्कहा गुप्तकालीन संस्कृति की दृष्टि से भी विशेष महत्व की है । इस ग्रन्थ में समुद्रयात्रा आदि के जो वर्णन हैं, वे भारतीय पथ-पद्धति पर विशेष प्रकाश डालते हैं ।
कुवलयमालाकहा- आचार्य हरिभद्र के शिष्य उद्योतनसूरि ने ई० ७७९ में जालौर में कुवलयमाला कहा की रचना की है । यह ग्रन्थ गद्य एवं पद्य दोनों में लिखा गया है । किन्तु इसकी विशिष्ट शैली के कारण इसे प्राकृत का चम्पू ग्रन्थ भी कहते हैं । कुवलयमाला की कथावस्तु भी एक नवीनता लिये हुए है। इसमें क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह जैसी मानसिक वृत्तियों को पात्र बनाकर उनकी चार जन्मों की कथा कही गयी है ।
कुवलयमाला नैतिक आचरण को प्रतिपादित करने वाला कथा ग्रन्थ है । साहित्य के माध्यम से जन-सामान्य के आचरण को कैसे संतुलित
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