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प्राकृत भारती ब्राह्मण से हाथ मिलाए, मदिरा और पंचगव्य एक ही पात्र में रक्खे जाँय, काँच और माणिक्य साथ-ही-साथ आभरण में
प्रयुक्त हों। 'विचक्षणा-इस राजकुल में उससे आपके कंठ को विभूषित किया जाए
जो भगवान् त्रिलोचन का शिरोभूषण है। आपके मुख का सत्कार उससे किया जाए जिससे अशोक वृक्ष की दोहद पूरी
होती है। विदूषक–अरी दासी की पुत्री, जुआ घरों की शेरनी सैकड़ों पुरुषों के
सर्वस्व का स्वाहा करने वाली, रास्ते की कुतिया, मुझे ऐसा कहती हो। अच्छा तो मुझ महाब्राह्मण के वचन से तुम्हें वह प्राप्त हो जो फाल्गुन मास में सोहजन को लोगों से प्राप्त
होता है और जो पामरों से पडुए बैल को प्राप्त होता है। 'विचक्षणा-अरे पादलग्न नूपुर की तरह व्यर्थ प्रलापी मैं पैरों की ठोकर से
तेरे मुख को चूरती ही रहूँगी। और भी, उत्तराषाढ़ के उपरान्त आने वाले नक्षत्र के नाम पर जो दोनों अंग हैं, उन्हें
उखाड़ फेंकूँगी। विदूषक-(रूष्ट होकर चलते हुए, परदे के पीछे जाकर, कुछ उच्च स्वर
में) इस तरह के राजकुल को दूर से प्रणाम है, जहाँ दासी ब्राह्मण से हाथ मिलाए। तो आज से अपनी वसुन्धरा नामक ब्राह्मणी के चरणों की परिचर्या करते हुए घर पर ही रहूँगा।
(सभी हंसते हैं) देवी-आर्य कपिन्जल के बिना गोष्ठी क्या ? आँखों में आँजन के बिना
प्रसाधन क्या ?
(नेपथ्य में) विदूषक-मैं अब आने को नहीं। मेरे वयस्य ! और कोई दूसरा प्रिय
वयस्य खोज लें। अथवा इसी दुष्ट दासी को लम्बी दाढ़ी, कनटोप और मुखौटे से सजाकर मेरे स्थान पर रख लें । मैं आप
लोगों के लिए मर गया। आप सौ वर्ष जीयें। राजा-कपिन्जल के बिना हृदय को शान्ति कहाँ ? विचक्षणा-आग्रह न करें। कपिन्जल ब्राह्मण अनुनय-कर्कश हैं। सलिल से
सिक्त होने पर शण की गाँठ और भी दढ़तर हो जाती है।
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