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प्राकृत भारती
राजा-(हंसकर) प्रिय वयस्य सुनो।
कामिनियों के अंग तो अपने (प्राकृतिक) गुणों से ही सुन्दर लगते हैं। साजसज्जा तो अंगों के सौष्ठव पर परदा ही डाल देती है। जिसके अवयवों पर सौन्दर्य की मद्रा पड़ी है, कामदेव उसके इगित पर अपने धनुष की डोरी को आकर्ण खींचकर सदा तत्पर रहता है । (३२)
__ श्रेणी इतनी पथल है कि बेचारी कांचीलता उसे क्या संभाले । स्तनों की ऊँचाई इतनी है कि वह (नायिका) अपनी नाभी नहीं देख सकती है। आँखों की लम्बाई इतनी है कि कर्णोत्पल की क्या आवश्यकता ? मुख इतना उज्जवल
और कान्तिमान है कि पूर्णमासी दो चन्द्रमाओं वाली हो
जाती है । (३३) देवी-आर्य कपिन्जल, पूछिए तो यह कौन है ? विदूषक-(नायिका से) मुग्धे, जरा बैठो तो और बताओ कि तुम
कौन हो? देवी-इसे आसन दो। विदूषक-यह रहा, मेरा उत्तरीय ।
(विदूषक अपना उत्तरीय देकर नायिका को बैठाता है) विदूषक-अब कहो। नायिका-इसी दक्षिणापथान्तरगत कुन्तल में सकल जनवल्लभ वल्लभराज
__ नामक राजा हैं। देवी- (स्वगत) जो मेरे मौसा होते हैं । नायिका-उनकी शशिप्रभा नामक गृहिणी हैं ।
देवी-वे तो मेरी मौसी हैं। नायिका- (स्मितिपूर्वक) उन्हीं की मैं तुच्छ पुत्री हूँ। देवी-(स्वगत) शशिप्रभा के गर्भ को छोड़कर और कहाँ से ऐसी रूप
शोभा आयेगी ? वैदूर्यमणि के प्राप्तिस्थान से ही वैदूर्यमणिशलाका प्राप्त होती है । (प्रकाश) तो तुम कर्पूरमंजरी हो?
(नायिका सिर झुका लेती है) देवी-आओ बहन, मुझसे मिलो (परस्पर आलिंगन करती हैं)। नायिका-कर्परमंजरी का यह प्रथम प्रणाम ।
देवी-भैरवानन्द जी, आज आपकी कृपा से अपूर्व संयोग हुआ, बहन
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