Book Title: Prakrit Bharti
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 245
________________ प्राकृत भारती दामाद बनाते हो ? उपाध्याय ने कहा कि-'हे पुत्र! आचरण से अकथित कुल ज्ञात हो जाता है । और कहा गया है कि श्लोक १६–'आचरण कुल को कहता है और बातचीत देश को । अनुराग स्नेह को कहता है और शरीर भोजन को ।' और भी गाथा १७-कमलों में सुगन्ध कौन देता है और गन्ने में मधरता कौन भरता है। श्रेष्ठ हाथी में लीला और अच्छे कुल में उत्पन्न व्यक्तियों में विनय कौन पैदा करता है? गाथा १८-'यदि गुण होते हैं तो कुल से क्या ? गुणी के लिये कुल से कोई कार्य नहीं। गुणों से रहित अकलंक कुल भारी कलंक ही है। [१७] इस प्रकार अन्य उक्तियों द्वारा उसको स्वीकार कराकर शुभ-मुहूर्त में शादी करा दी गयी और स्वप्न का फल कहा गया कि सात दिन के बीच में तुम राजा बनोगे । उसको सुनकर मलदेव हर्षित मन वाला हुआ और वहीं पर ही सुख-पूर्वक रहने लगा। पाँचवें दिन वह नगर से बाहर गया और चंपक (वृक्ष) की छाया में सो गया। [१८] इधर उस नगरी का पुत्र-रहित राजा मृत्यु को प्राप्त हो गया। वहाँ पाँच दिव्य पदार्थों द्वारा राजा की खोज की गयी। उनके द्वारा घूमकर नगर के बाहर निकला गया और मूलदेव के निकट जाया गया । अपरिवर्तित होती हुई छाया के नीचे मूलदेव देखा गया । उसको देखकर खुशी से हाथी चिंघाड़ा और घोड़ा हिनहिनाया, जल-पात्र से अभिषेक किया गया, चामरों से हवा की गयी और श्वेत छत्र मूलदेव के ऊपर स्थित हो गया । तब लोगों द्वारा जय-जयकार किया गया । उनके द्वारा मूलदेव को गज के कन्धे पर चढ़ाकर नगरी में प्रविष्ट कराया गया। मंत्री-सामंतों द्वारा उसका अभिषेक किया गया। तब आकाशतल में स्थित देवता द्वारा कहा गया-अरे-अरे ! यह महानुभाव सम्पूर्ण कलाओं का धारक, देवाधिष्ठित शरीर वाला विक्रमराज नामक राजा है। अतः इसके शासन को जो नहीं मानेगा, उसे मैं क्षमा नहीं करूंगी। तब सब सामंत-मंत्री, पुरोहित आदि परिजन मूलदेव के आज्ञा-पालक बन गये । मूलदेव उदारता पूर्वक विषय-सुखों का उपयोग करता हुआ रहने लगा। तब उज्जैनी के राजा द्वारा जब अपने विचारों की धवलता के साथ मूलदेव के साथ व्यवहार किया गया तो उनमें परस्पर निरन्तर प्रीति बढ़ने लगी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268