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प्राकृत भारती
पत्नी थी। एक दिन सुयशा के साथ दुर्गिला साध्वियों के पास गयी । सुयशा ने वहाँ विस्तार से प्रशस्त वस्त्र एवं फूलों के द्वारा पुस्तक पूजा की। चंदना साध्वी की वन्दना की । विधि से उपवास का प्रत्याख्यान किया । दुर्गिला ने साध्वी को प्रणाम कर पूछा – हे भगवती ! आज क्या है ? साध्वी ने कहा - " आज शुक्ल पक्ष की पंचमी है, जो शुभ तिथी है" । इस प्रकार उसको जिनमत समझाया और कहा इसमें यथाशक्ति ज्ञान, पूजा, तप करना चाहिए ।"
गाथा ३३ - इस पुस्तक को जो वस्त्र, गंध, फूलों के द्वारा पूजा करते हैं, इसके सामने नैवेद्य व दीपक जलाते हैं,
गाथा ३४ - यथा शक्ति तप करते हैं, वे विशुद्ध बुद्धि से सम्पन्न होते हैं और सौभाग्यादि गुणों से युक्त होकर सर्वज्ञ पद प्राप्त करते हैं ।
गाथा ३५ - तब दुर्गिला ने कहा - यह मेरी स्वामिनी सुयशा धन्य है, जो तप का सामर्थ्य रखती है और धन धर्मार्थ में लगाती है ।
गाथा ३६ - हमारे जैसे धनहीन जन अधन्य है जो तप करने की शक्ति से रहित है । मंदभाग्य वाली मेरे लिए साध्वी आप ही कहिए - मैं क्या करू ?
गाथा ३७ - साध्वी ने कहा -- तब तुम तो में करो। तुम पर - पुरुष - निवृत्ति रूप शील को करो ।
गाथा ३८ - अष्टमी और चतुर्दशी तिथियों में अपने पति का भी त्याग करो । ऐसा करोगी तो हे भद्रे ! तुम भी कल्याण को प्राप्त करोगी ।
शील को अपने वश यावज्जीवन धारण
गाथा ३९ -- इसको ग्रहण करके वह अपनी आत्मा को कृतार्थ मानती हुई घर गयी । अपने पति को कहा। उसने भी यह सुना ।
गाथा ४० – संतुष्ट मन वाला वह शील को बहुत मानता हुआ कहता है-- तुम्हारे द्वारा जीवन का फल प्राप्त कर लिया गया है, अ मैं भी पर पत्नी - निवृत्ति करता हूँ ।
गाथा ४१ - उसमें भी पर्व तिथियों में विरति और अपनी पत्नी में नियम रखा। यह नियम करके क्रम से उनके द्वारा सम्यकत्त्व
पाया गया ।
गाथा ४२ – अब दुर्गिला विशेष उत्साह से और श्रद्धा से स्वयं:
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