Book Title: Prakrit Bharti
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 264
________________ आठ कथानक २५५ भोजन के समय स्वयं फलों से भरे बोरों के पास जाकर कहा-"रस्वती तैयार है।" वोरों को द्वारा कहा गया-'तैयार है', यावत् कुछ भी तैयार नहीं हुआ। राजा ने विलक्ष मुख से बोरों को खोला। उसमें क्षुधा से शुष्क मुख से, नष्ट हुए मांस और रक्त वाले, हड्डियों का ढाचा स्पष्ट दिखाई पड़ रहा था ऐसे, प्रकट एवं दिखते हुए नसों के जाल वाले, पर्वत की गुफा के समान गहरे उदर वाले, क्षीण कपोल वाले, म्लान आखों वाले, असंबद्ध और शीतल पवन की तरह क्षीण हुई शरीर की कांति वाले, विषाद चित्त वाले, प्रताप से रहित चार व्यक्तियों को देखा । 'अहो ! ये यक्ष नहीं हैं, परन्तु राक्षस हैं । इस प्रकार कहने पर उन्होंने राजा से कहा-हे देव ! "हम न तो यक्ष है, न ही राक्षस, किन्तु आपके मित्र कामांकुर आदि है" । इस प्रकार कहते हुए पावों में पड़े। [२१] राजा ने भी सम्यक् रूप से देख करके विस्मयपूर्वक कहा-'भद्रों ! तुम्हारी इस प्रकार की अवस्था कैसे हो गयी ? उनके द्वारा भी जैसा हुआ वैसा वृत्तान्त कहा गया। शोलवती की प्रशंसा करते हुए राजा ने कहा-“अहो ! तुम्हारा बुद्धि कौशल, अहो ! तुम्हारा शील पालन का प्रयत्न, अहो ! तुम्हारे दोनों लोक के भय को देखने की प्रवृत्ति । इस प्रकार राजा ने नीलवती की प्रशंसा की और कहा-अम्लान फूलों की माला देखने से प्रकट, तुम्हारे शील के महात्म्य पर श्रद्धा नहीं करते हुए मेरे द्वारा ही इन्हें भेजा गया, इसलिए क्रोध मत करना, क्षमा करना । उसने भी धर्म को कह करके राजा को प्रतिबोधित किया। राजा के अन्य सचिवों को सर्व पर-दारा-निवृत्ति करायी। राजा ने शीलवती का सत्कार किया । वह स्वस्थान गयी। [२२] एक बार गन्ध-हस्ती के समूह से घिरे हुए की तरह श्रमणों से घिरे हुए चार ज्ञान के धारी धर्मघोष आचार्य आए। अजितसेन शीलवती के साथ उनके वन्दन के लिए गया । वन्दना करके गुरु के सामने बैठे। [२३] गुरु के द्वारा शीलवती को कहा गया- "हे भद्रे ! तुम धन्य हो । जो तुम पूर्व-भव के अभ्यास से शील परिपालन में प्रवृत्त हई हो।" मन्त्री ने कहा-“भगवन् ! यह कैसे है ?" गुरु ने कहा-"कुसुमपुर नगर में सत्कार्यों में कुशल व तत्पर रहने वाला, पाप प्रवृत्तियों में आलस्य करने वाला सुलस नाम का श्रावक रहता था। उसकी सुयशा पत्नी थी। उनके घर में प्रकृति से भद्र दुर्गत चाकर था। उसकी दुर्गिला Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 262 263 264 265 266 267 268