Book Title: Prakrit Bharti
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 262
________________ आठ कथानक २५३ लगी । अशोक भी 'मेरा कार्य सिद्ध हो गया' । इस प्रकार मानता हुआ दासी को भेजा । उसने शीलवती को कहा-“हे भद्रे ! यौवन फल की तरह थोड़े समय का है। अतः इसको विषय-सेवन के द्वारा सफल करना योग्य है । तुम्हारे पति राजा के साथ गये हैं । यह सुभग तुम्हारी अभिलाषा करता है।" उसने सोचा--"सु-हत अर्थात् अच्छी तरह मरा हुआ । बेचारा यह काम और कर्म से पराधीन है, जो इस प्रकार पाप में प्रवृत्ति करता है।" दुति ने कहा- "हे प्रसन्न नेत्रों वाली ! कामदेव रूपी अग्नि की ज्वाला से संतप्त इस पर प्रसन्न हो ।” गाथा २८-२९-अपने अंग समागम के रस के द्वारा इसके शरीर को शान्त करो। शीलवती ने कहा-तुम्हारा कथन योग्य है किन्तु पर पुरुष का संगम कुलीन महिलाओं के लिए अयुक्त कहा गया है । परन्तु द्रव्य प्रसंग से अर्थात् जितना माँगों, उतना धन मिलता हो. तो ठीक है। गाथा ३०-स्नेह के लोभ से उच्छिष्ट भोजन भी किया जाता है। उसने कहा-हे भद्रे ! तुम कितना धन माँगती हो?।। ____ गाथा ३१-३२-शीलवती ने कहा-आधा लाख समृद्धि समर्पित कर दो, उस अर्द्ध लक्ष को ले करके आज से पाँचवें दिन स्वयं आ जाय, ताकि उस सुभग को अपूर्व रति से प्रसन्न कर सकू। [१६] उसने यह बात अशोक को कही। उसके द्वारा भी अर्द्ध लक्ष धन समर्पित कर दिया गया । शीलवती ने भी प्रच्छन्न कोठरी में, छिपे हए पुरुषों के द्वारा गड्ढा खुदवाया। उसने, उसके ऊपर श्रेष्ठ वस्त्र रखकर गड्ढे को ढक दिया। पाँचवें दिन रात अद्ध लक्ष लेकर के अशोक आ गया । खाट पर बैठा । एकदम गड्ढे में गिर गया। शीलवती भी दया से उसको प्रतिदिन डोरी से बाँधकर भोजन देती रही। [१७] एक मास व्यतीत होने पर राजा ने अन्य मन्त्रियों से कहा- "अशोक क्यों नहीं आया ?" उन्होंने कहा--"कारण नहीं जान सकते हैं।" रतिकेलि ने कहा- "मुझे आदेश दीजिये, जिससे मैं चितित अर्थ को शीघ्र समाप्त कर आऊँ।" राजा ने बहत धन देकर उसे विदा किया। नगर में आया। वह भी लक्ष सम्पत्ति देकर के उसी उसी प्रकार गड्ढे पर बैठा। गड्ढे में गिरा। इसी प्रकार ललितांग एवं कामांकुर भी लक्ष दे करके गड्ढे में गिरे। अशोक की तरह वह भी शोक युक्त रहने लगे । अरिमर्दन राजा भी सिंहरथ को वश में करके अपने नगर में आ गया। शीलवती को कामांकुरादि के द्वारा कहा गया Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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