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पाठकथानक
किया । एक नगर को नहीं जीता जा सका । तब त्रिदण्डी के वेश में नगर में प्रवेश किया। वह नगर इन्द्रकुमारिकाओं के द्वारा देखा गया था, इस कारण उसे नहीं जीता जा सका। उनसे माया के द्वारा उन्हें शहर के बाहर निकलवा दी और नगर ग्रहण कर लिया। तब पाटली.
पुत्र पर आक्रमण कर दिया। [६] नन्द ने धर्मद्वार की याचना की। चाणक्य ने कहा--एक रथ से जो
ले जा सके, वह बाहर ले जाए । तब नन्द दो पत्नियों एवं एक पुत्री के साथ जितना धन ले जा सका, लेकर बाहर निकला । जाते हए कन्या बार-बार चन्द्रगुप्त को देखती है। राजा ने कहा-जैसा चाहो। इस प्रकार कहने पर वह गयी। चन्द्रगुप्त के पहिये पर पैर रखते ही उसके नौ आरे तड़ाक से टूट गये । 'अमंगल हुआ' सोचकर चन्द्रगुप्त ने उसे उतर जाने को कहा । त्रिदण्डी चाणक्य ने कहा—मत उतारो, तुम्हारा वंश, तुम्हारे पीछे नौ पीढ़ी तक चलेगा। तब वह स्वीकार की गयी। राजकूल में आए। राज्य के दो भाग किये । वहाँ एक विषकन्या थी। उसकी पर्वत राजा ने इच्छा प्रकट की। वह उसको दी गयी। अग्नि प्रदक्षिणा के समय विष के प्रभाव से मृत्यु को समीप में देखकर कहने लगाहे पुत्र! मर जाऊँगा। चन्द्रगुप्त-'यह मर सकता है' इस प्रकार सोचकर दौड़ा परन्तु चाणक्य ने भृकुटि करके ऐसा करने से रोक दिया
श्लोक ६–समान सम्पत्ति वाले, समान सामर्थ वाले, व्यवसायियों में मर्मज्ञ (रहस्यों का जानकार), आधे राज्य के अधिकारी को
जो नहीं मारता है, वह स्वयं मारा जाता है। 17 राज्य पर चन्द्रगुप्त को बिठाया। दोनों ही राज्य उसको प्राप्त हो गये।
नन्द के मनुष्यों ने चोरी से जीवन यापन करना शुरू किया और देश में असन्तोष फैलाने लगे। चाणक्य किसी उपयुक्त नगर रक्षक को खोजने लगा। नगर के बाहर गया। वहाँ नलदाय नामक कपड़े बुनने वाले को देखा। पुत्र को मकोडों के द्वारा डसते देखकर क्षण भर में बिल को खोद करके उसने जलते हुए अंगारों को मूल स्थान पर डाल दिया। तब 'यह नगररक्षक उपयुक्त है' इस प्रकार विचार कर उसे बुलाया । उसको सम्मानीत कर उस नगर का रक्षक बना दिया। उसने चोरों को प्रलोभन और धनादि देकर नगर को उपद्रव से रहित कर दिया । राज्य निष्कण्टक हो गया । कोष की अभिवृद्धि के लिए चाणक्य
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