Book Title: Prakrit Bharti
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 256
________________ आठ कथानक २४७ कहा-आपके आदेश से, मैं कृतगंला नगरी गया था। मेरा जिनदत्त श्रेष्ठी के साथ परिचय हो गया। उन्होंने भोजन के लिए मुझे निमत्रंण दिया। उसके घर में मैंने चन्द्रमुखी, पद्मराग की तरह हाथ-पैरों वाली, किसलय के समान होठों वाली, चमकते हुए दाँतों वाली, चाँदी के समान नितम्बों वाली, गोरे रंग वाली और अंगों से कामदेव के वैभव की पिटारी के समान विचरण करती हुई एक कन्या को देखा। मैंने श्रेष्ठी से पूछा-“यह कौन है ?" सेठ ने कहा-"यह मेरी पुत्री है इसकी बुद्धि के कारण चिंतातुर हैं।" ___ गाथा ५-“किस मनोज्ञ वर को प्राप्त करेगी, किस प्रियतम को प्राप्त करेगी, कौन लोग इसके श्वसुर आदि होंगे जिनको यह अपने गुणों से प्रसन्न करेगी। शील का किस प्रकार पालन करेगी? कैसे पुत्र का प्रसव करेगी, इस प्रकार चिता की मूर्तिरूप यह कन्या पिता के घर में रहती है।" [३] इसके शरीर की कान्ति देवाङ्गनाओं के अहंकार को दलित करने वाली है। अनेक गुणों से सुशोभित हित और अहित का विचार करने में कुशल है, इसका चारित्र प्रशंसनीय है । शीलवती इस गुण से निष्पन्न नाम वाली बचपन से ही, पूर्व किये हुए शुभ कर्मों के कारण शकुनरुत (पक्षियों की आवाज) के परिज्ञान रूपी सखियों से युक्त यह मेरी पुत्री है। इसके अनुरूप वर प्राप्त नहीं होने के कारण मैं अत्यन्त चिन्तित हूँ। मेरे द्वारा कहा गया-“हे श्रेष्ठी ! संतप्त मत हो, यहाँ नन्दनपुर में रत्नाकर नाम के सेठ के विशिष्ट रूप गुणों से युक्त अजितसेन नाम का पुत्र है, जो तुम्हारी पुत्री के अनुरूप वर है।" [४] जिनदत्त ने कहा-“भद्र ! तुमने मेरी महान चिन्ता रूपी समुद्र मार्ग को उपदेशरूपी नौका से पार करा दिया।" इन प्रकार कहकर उसके द्वारा शीलवती अजितसेन को देने के लिए अपने पुत्र को मेरे साथ भेजा है। वह यहाँ आकर ठहरा है। इसलिए जो योग्य हो, आदेश करें। “तुमने योग्य किया है" इस प्रकार कहकर जिनसेन सेठ को बलाया। उसने सगौरव शीलमती को अजितसेन को देना स्वीकार कर लिया। अजितसेन ने उसके साथ जाकर शीलमती से विवाह किया । उसको लेकर अजितसेन अपने घर आ गया । भोजन किया । [५] एक दिन मध्य रात्रि में घड़े को लेकर शीलमती घर से निकली। कुछ समय बाद आयी हुई (वह) श्वसुर के द्वारा देखी गयी। उसने सोचा-यह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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