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आठ कथानक
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गाथा ४–जो लोग स्वार्थ के बिना संसार में अर्थविहीन लोगों के गौरव का निर्वाह करते हैं, वे संसार में बिरले ही होते हैं। [३] अतः किसी भी उपाय से धन एकत्रित करूंगा। नन्द पाटलिपुत्र में
दीन ब्राह्मणादिकों को धन देते है, वहाँ जाता हूँ। तब वहाँ जाकर कार्तिकी पूर्णिमा के दिन जो पहला आसन दीख पड़ा उसी पर बैठ गया । वह आसन वास्तव में राजवंश के व्यक्तियों के लिए नियत था। नन्द ने अपने पुत्र सिद्धपुत्र के साथ प्रवेश किया और कहा-यह ब्राह्मण नन्दवंश की छाया का अतिक्रमण करके यहाँ स्थित है। तब दासी ने कहा-हे भगवन् ! आप दूसरे आसन पर बैठिये । 'ऐसा ही हो' यह कहकर दूसरे आसन पर लोटा रख दिया, इसी प्रकार तीसरे पर दण्ड, चौथे पर माला और पाँचवें पर यज्ञोपवीत रख दिया । 'धष्ट है' इस प्रकार कहकर उसे लात मारकर पदच्युत कर दिया, तब चाणक्य प्रतिज्ञा करता है
श्लोक ५-जिस प्रकार उग्र वायु का प्रचण्ड वेग अपने अनेक शाखा समूह सहित महान् वृक्षों को जड़ सहित उखाड़ फेंकता है, उसी प्रकार नन्द ! तेरा-कोष, नौकर, पुत्र और मित्रादि सहित समूल
नाश कर दूगा। [४] वह चाणक्य क्रोधित होकर वहाँ से निकला। उसने सुना था
"किसी के ओट में राजा होऊँगा" इस प्रकार घूमते हुए परिव्राजक का वेश बनाकर नन्द के अधिनस्थ मयूरपोशकों के ग्राम में पहुँचा । उसी ग्राम के मुखिया की पुत्री को चन्द्रमा को पीने का दोहद उत्पन्न हुआ। वह वहाँ गया, पूछा। उस चाणक्य ने कहा-यदि मुझे अपना पुत्र दो, तो मैं तुम्हें चन्द्रमा पीला दूंगा । उसने स्वीकार कर लिया। उसने कपड़े का मण्डप बनाया, उस दिन पूर्णिमा थी। उसने कपड़े में छेद कर दिया, चन्द्रमा के मध्याह्न में जाने पर सभी रसों वाले द्रव्यों से युक्त खीर से थाल भरकर उसे बुलाया, थाल में चन्द्रमा दिखलाया और उसे पीला दिया। ऊपर जो पुरुष था, उसने छिद्र ढक दिया। दोहद पूर्ण होने पर कालक्रम से उसके पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम चन्द्रगुप्त रखा गया । वह भी यावत् बढ़ने लगा। चाणक्य ने भी धातु से स्वर्ण बनाने का मार्ग खोज लिया । जब चाणक्य उस ग्राम में आया, तब चन्द्रगुप्त बच्चों के साथ खेल रहा था और राजनीति की भाषा बोल रहा था। चाणक्य उसे देखता है और परीक्षा करने के
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