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आठ कथानक
२३५ [१५] इसी बीच आकाश में गयी हई ऋषिभर्ता देवता के द्वारा मूलदेव की
भक्ति से रंजित होने पर कहा गया- "हे पुत्र मूलदेव ! तुमने सुन्दर अनुष्ठान किया है, अतः इस गाथा के उत्तरार्ध भाग द्वारा जो तुम्हें रुचिकर हो, वह माँगो, जिससे मैं सब ही अर्पण कर सकें। तब मूलदेव ने कहा
गाथा १५ (ख) देवदत्ता गणिका को हजार हाथी और राज्य ।
देवता ने कहा- "हे पुत्र ! निश्चित होकर विचरण करो। ऋषि के चरणों की कृपा से शीघ्र ही यह सब प्राप्त होगा।” मूलदेव ने कहा- "हे भगवती, ऐसा ही होगा। तब ऋषि को वंदना करके वह वहाँ से रवाना हुआ। ऋषि भी उद्यान को गया ! मूलदेव के द्वारा दूसरी भिक्षा प्राप्त की गयी। वह उसे खाकर बेन्नातट-समूह.
की ओर रवाना हुआ, क्रम से वहाँ पहुँचा। [१६] मृलदेव रात्रि में पथिक-शाला के बाहर सोया। अन्तिम प्रहर में
उसने स्वप्न में परिपूर्ण-मंडल और निर्मल-प्रभा युक्त चन्द्रमा को उदर में प्रविष्ठ होते हुए देखा। दूसरे एक भिक्षक ने भी ऐसा ही देखा । उसने दूसरे भिक्ष कों को कहा। उनमें से एक ने कहा- “आज तुम घीगुड़ से युक्त बड़ी रोटी प्राप्त करोगे।" ये लोग स्वप्न का वास्तविक अर्थ नहीं जानते, अतः मलदेव ने कुछ नहीं कहा। जब वह भिक्षुक भिक्षा के लिये गया तब जैसा कहा गया था (वैसे ही) घर की छत से उसने रोटी प्राप्त की। इस प्रकार वह सन्तुष्ट हुआ । और उस भिक्षु क को पुनः आकर कह दिया । इधर मूलदेव भी एक बगीचे में गया । वहाँ पुष्प एकत्र करने वाले माली के द्वारा वह रोका गया, सहायता करने पर पुष्प-फल आदि उसे दिये गये। उनको लेकर, पवित्र होकर वह स्वप्न-शास्त्र-पाठक के घर पर गया । उसको प्रणाम किया और क्षेमआरोग्य-वार्ता पूछी। उसने भी सम्मानपूर्वक बोलकर प्रयोजन पूछा। मूलदेव ने हाथ जोड़कर स्वप्न का वृत्तान्त उसे कह दिया । उस उपाध्याय ने हर्षपूर्वक कहा कि स्वप्न का फल मैं शुभ-मुहूर्त में कहूँगा, अतः आज मेरा आतिथ्य ग्रहण करिये । मूलदेव ने स्वीकार कर लिया। उसके द्वारा स्नान करके ऐश्वर्य-पूर्वक भोजन किया गया। भोजन के बाद उपाध्याय ने कहा-“हे पुत्र ! मेरी यह कन्या वर प्राप्त करने योग्य है अतः तुम मेरे आग्रह से इससे शादी कर लो।' मूलदेव ने कहा कि हे तात ! आप अज्ञात शील व कुल वाले व्यक्ति को कैसे अपना
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