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प्राकृत भारती २२८
उसके अधीन मन वाले हो गये। समीप में स्थित हथिनी सदा आवाज करती रहती थी, वह भी कान लगाकर वहाँ घूमती हुई स्थित हो गयी। तब देवदत्ता और वह वीणा-वादक अत्यन्त विस्मित हुए। उन्होंने सोचा कि यह कोई गुप्त वेशधारी ब्रह्मा है। उस देवदत्ता ने
वीणा-वादक को सम्मानित कर भेज दिया। [५] भोजन का समय आया। देवदत्ता ने कहा- "अंगों की मालिश करने
वाले को बुलाओ, जिससे हम दोनों स्नान करेंगे।" मूलदेव ने कहा“यदि तुम अनुमोदना करो तो मैं ही तुम्हारे तेल-मालिश का कार्य कर देता हूँ।" उसने पूछा "क्या यह भी जानते हो?" उसने कहा'अच्छी प्रकार से नहीं जानता किन्तु जानने वालों के पास रहा हूँ।' चंपक का तेल मँगाया गया। उसने मालिश करना प्रारम्भ किया और उसे पराधीन मन वाली बना दिया। उस गणिका ने सोचा-'अहो ! अतिशय विज्ञान और अद्भत हाथों का स्पर्श है। अतः यह कोई गुप्त वेश में सिद्ध-पुरुष होना चाहिये। इसके रूप की श्रेष्ठता प्रकृति से यह नहीं है, अतः इसके वास्तविक रूप को प्रकट कराती हूँ।" वह उसके चरणों में गिरकर कहती है । "हे महानुभाव ! असमान गुणों वाले होने से ही आप उत्तम पुरुष के रूप में जान लिये गये हैं। आप वात्सल्य युक्त एवं चतुरता में प्रवीण हैं। अतः मुझे अपना वास्तविक रूप दिखाओ। मेरे मन में तुम्हें देखने की अत्यन्त इच्छा है।"
[६] बार-बार आग्रह किये जाने पर मलदेव ने थोडा हँसकर वेश-परा
वर्तिनी गोली को निकाल लिया और अपनी यथार्थ अवस्था में आ गया। रूप से सूर्य की तरह तेज को प्रकाशित करता हुआ और कामदेव की तरह सब जनों को मोहित करता हुआ नव-यौवन, लावण्य और सम्पूर्ण देह वाला वह देखा गया । हर्ष के कारण अंकुरित और पुलकित होकर वह देवदत्ता पुनः उसके चरणों में गिर गई और उसने कहा कि आपकी महान कृपा है। फिर उसने अपने हाथों से उसकी मालिश की। दोनों के द्वारा नहाया गया एवं सम्पन्नतापूर्वक जीमा (खाना खाया) गया, दिव्य वस्त्र पहने गये, विशिष्ट गोष्ठी में वे ठहरे फिर देवदत्ता ने कहा- "हे महाभाग ! तुम्हें छोड़कर मेरा मन किसी दूसरे पुरुष से अनुरंजित नहीं हो सकता है ।" और यह सत्य है कि
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