Book Title: Prakrit Bharti
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 240
________________ आठ कथानक २३१ उसे देती है और प्रेरित करती हुई कहती है कि जैसा यह आलतारसरहित है वैसा ही तेरा प्रियतम धनरहित है, तब भी तुम उसको नहीं छोड़ती हो।' देवदत्ता ने सोचा कि यह अज्ञानी है। अतः वह उसको उसी प्रकार से दृष्टान्त देती है। [९] तब एक बार देवदत्ता ने अपनी माता से कहा कि-'हे माँ ! अचल से इक्ष मँगाओ । उसने भी उसको कह दिया । अचल ने भी गाड़ी भर कर भेज दीं। देवदत्ता ने कहा कि क्या मैं हकिनी हूँ जो इस प्रकार पत्ते एवं डाल सहित इतने अधिक इक्ष भेजे गये हैं ? तब माता ने कहा-'हे पुत्री! (वह) उदार है। अतः उसने इस प्रकार भेजा है।' उसने सोचा कि देवदत्ता दूसरों को भी दे देगी। दूसरे दिन देवदत्ता के द्वारा माधवी को कहा गया-'हे सखी! मूलदेव को कहो कि इक्षु खाने की मेरी इच्छा है। अतः मुझे भेज दे।' उसने भी जाकर कह दिया । मलदेव के द्वारा भी दो इक्षु दण्ड (गन्ने) ग्रहण किये गये, उसको छीलकर थोड़ा जड़ से अलग कर दो अंगुल जितने लम्बे टुकड़ों के आकार में करके उन्हें दबा कर कोमल किया गया। थोड़ा कपुर से सुगन्धित कर दिया। फिर नये पात्रों को लेकर, उनमें भर कर और ढक कर भेजा गया। माधवी के द्वारा लाकर भेंट किया गया। उसे देखकर देवदत्ता ने माँ से कहा-'हे माँ ! देखो (दोनों) पुरुषों में अन्तर है। इसलिये मैं मूलदेव के गुणों में अनुरक्त हूँ।' जननी के द्वारा सोचा गया-'यह उसमें अत्यन्त मोहित है और इसे अपने आप नहीं छोड़ेगी। अतः कुछ ऐसा उपाय करती हूँ, जिससे यह कामुक मूलदेव विदेश चला जाय, तब ही सुख होगा।' यह सोच कर उसने अचल से कहा-तुम इससे झूठ में दूसरे गाँव में जाने के लिये कहो। बाद में मूलदेव के प्रविष्ट होने पर मनुष्यों की तैयारी के साथ आना और उसे अपमानित करना। जिससे अपमानित होता हुआ वह स्वतः देश-त्याग कर देगा । इसलिये संयोग होने तक रुको। मैं तुम्हें समाचार दूंगी।' अचल ने भा यह स्वीकार कर लिया। [१०] दूसरे दिन अचल ने इसी प्रकार किया। दूसरे गाँव जाने के झूठ बहाने से बाहर निकला । मूलदेव प्रविष्ट हुआ। माँ ने अचल को बता दिया। वह विपुल तैयारी के साथ आया। देवदत्ता ने उसको प्रविष्ठ होते हुए देखा तो मूलदेव को कहा-यह ही अवसर है, तब Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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