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प्राकृत भारती
वाणो से कहा-“हे प्रियतम! तुम जैसे चन्द्रमा के लिये यह जआ हरिण कलंक के समान है तुम्हारे सभी गुण समूहों का कलंक यह द्यूत व्यसन ही है । और यह बहुत से दोषों का भंडार है । और भी
कड़वक ८–“कुल को कलंकित करने वाला, सत्य का विरोधी, अत्यन्त लज्जा और शोक का ग्रहण कराने वाला धर्म-कार्य में विघ्न उत्पन्न करने वाला और अर्थ को नष्ट करने वाला द्यूत दान-भोग से रहित है।" "जुआ पुत्र, पत्नी, पिता, माता का हरण करने वाला है, इनमें न देव, गुरु को और न ही कार्य-अकार्य को गिना (जाना) जाता है। यह तन को संतप्त करने वाला और कुमति के मार्ग पर चलाने वाला है, अतः हे प्रिय ! जुए में अनुराग मत करो।"
इसलिये इसे बिल्कुल छोड़ दो किन्तु अत्यधिक आसक्ति होने के कारण मूलदेव उसका त्याग नहीं कर सका। [८] इधर देवदत्ता में प्रगाढ़ अनुरक्ति वाला समृद्धिवान मित्रसेन का
अचल नामक सार्थवाह पुत्र था। उससे जो भी माँगा जाता, वह देता था। वह वस्त्र, आभूषण आदि प्रदान करता था और वह मृलदेव के ऊपर द्वेष को धारण करता था तथा दोषों (छिद्रों को) खोजता हुआ (उसे लज्जित करने के लिये) अवसर खोजता था। इसकी शंका हो जाने से मूलदेव देवदत्ता के घर पर नहीं जाता था। एक बार माता ने देवदत्ता को कहा-'हे पुत्री! इस मूलदेव को छोड़ो क्योकि इस अल्प सुन्दर व निर्धन से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा। जबकि महानुभाव, दाता अचल बार-बार बहुत-सा द्रव्य देता रहता है। इसलिये उसको ही पूर्ण प्रेम से अंगीकार करो। एक म्यान में दो तलवारें नहीं समाती हैं और न ही लवण-रहित चट्टान को कोई चाटता है। अतः इस जुआरों को छोड़ दो।' तब देवदत्ता ने कहा'हे माँ ! मैं केवल धन की अनुरागी नहीं हूँ, गुणों में ही मेरा प्रतिबन्ध है।' माता ने कहा-'उस जुआरी के कैसे गुण हैं ? 'उसने कहामाँ ! केवल वही गुण वाला है । यथा
गाथा ९–'वह धीर-उदारचित, चतुरता का महासागर, कलानिपुण, प्रिय-भाषी, कृतज्ञ, गुणों में अनुरागी और विशेषज्ञ है ।' ____ इसलिये मैं इसको नहीं छोडूंगी । तब वह माता अनेक दृष्टान्तों से देवदत्ता को प्रतिबोधित करने लगी। नीरस आलता को मंगाकर
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