Book Title: Prakrit Bharti
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 232
________________ : कर्पूरमञ्जरी से ऐसा लगता है कि ये कोई महाराज हैं । ये इनकी महादेवी जान पड़ती है । अर्द्धनारीश्वर के वामाद्ध में गौरी हैं । इसे कहने की क्या आवश्यकता ? ये योगीश्वर हैं । ये परिजन हैं ( सोचकर ) महिला सहित होने पर भी ये (महाराज) प्रेमभरी दृष्टि से मुझे देख रहे हैं । ( राजा के ऊपर तिरछी चितवन डालती हैं) राजा - ( विदूषक के प्रति, जनान्तिक) कानों के पार्श्व से जब कटाक्ष की चपला कौंध गई तब (नेत्र की शोभा ऐसी थी मानों केतक का दल जिसके अग्रभाग पर भौंरा बैठा हो। मैं तो मानों कर्पूर के रस से लिप-पुत गया, ज्योत्स्ना से सरावोर हो गया और मोतियों के कणों की आँधी में पड़ गया । (२८) (विदूषक से उसी तरह) २२३ त्रिवली से युक्त मध्यभाग को तो मानों शिशु भी अपनी मुट्ठी में ले लें किन्तु पृथुल श्रोणी को तो (मेरे लिए भी) दोनों बाहुओं में वेष्टित कर पाना मुश्किल है । नेत्र तो तरुणों की तलत्थी मे भी बड़े हैं । इसे जो मेरे समक्ष प्रत्यक्ष है, हृदय पर अंकित नहीं किया जा सकता है - इसका सौन्दर्य कल्पनातीत है । (२९) स्नान के क्रम में विलेपनादि के धुल जाने पर भी आभूषणों के उतार दिए जाने पर भी इतनी रमणीयता ! अथवा जोरूप से हीन हैं वे ही विभूषण धारण करते हैं- उनकी सुन्दरता अलंकारों से है । किन्तु जो प्रकृतितः सुन्दर हैं उनके सौन्दर्य में आभूषणों सेभ ला क्या निखार आएगा । (३०) इस (युवती) के विषय में तो ऐसा अवश्य ही है । क्योंकि, इसकी कान्ति नये और असली सोने जैसी है । लम्बी आँखें कानों तक चली गई हैं। दोनों कपोल मानों चन्द्रमा के दो टुकड़े हैं, कामदेव धनुष पर बाण चढ़ाकर इसकी रक्षा करते हैं, तभी तो शोषण, मोहनादि उसके बाण मुझे चुभ रहे हैं । (३१) विदूषक - ( हंसकर ) समझ गया, तुम्हारे पौरुष ने घुटने टेक दिए । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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