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कंसवध
१. मोर के पंख के मकूट वाले, स्नेहयक्त गोपियों के नेत्रों के कटाक्ष से
देखे गए स्वयं यशोदा के पुत्रपने को प्राप्त लक्ष्मी के नाथ प्रभु
(कृष्ण) गोशाला को सुशोभित करते हैं। २. हे सज्जनो ! अमृत की तरह सुख प्रदान करने वाली उस (कृष्ण के
द्वारा) कंसवध की कथा को ही ग्रहण करें (सुनें), जिसे सदा गुरुओं के चरणों में आश्रित रहता हा मैं भक्ति गुण से प्रेरित होकर
कहता हूँ। ३. इसके बाद एक दिन गदा के छोटे भाई (कृष्ण) अपने बड़े भाई
(बलराम) के साथ वे (कृष्ण) आगे प्रवेश करते हुए व्रजांगन (गोशाला) में घूमते हुए दिन के अन्त में (संध्या) गायों को दुहने
में लगी हुई गोपियों को गान्दिनी पुत्र देखते हैं। ४. पृथ्वी पर धूली में रेखा, रथ, संख, पंकज, ध्वज आदि पद-चिह्नों
को देखकर उन्हें नमन करते हुए पुलकित पलकों वाले प्रमोद के
आँसुओं से गीले आनंदित शरीर वाले [अकर) को देखते हैं। ५. प्रतिक्षण ध्यान में बंद आँखों वाले, झके हए सिर से अंजलिबद्ध
प्रणाम करने वाले, आदरपूर्वक स्मरण करते हुए अपने सामने
शोभायमान अक्रूर को अत्यन्त कौतुकता से कृष्ण ने देखा। ६. चारों ओर स्थित वस्तु समूह को न देखने वाले, कही जाने वाली
ऊँची आवाज को नहीं सुनने वाले, बाहरी बाधा से रहित एवं श्रेष्ठ परब्रह्म के सुख का अनुभव करने वाले किसी देहधारी (अक्रूर) को
(कृष्ण देखते हैं)। ७. क्षण भर में रोता हुआ, दूसरे क्षण हँसता हुआ और क्षणभर में
खम्भे की तरह अस्थिर स्थित, क्षणभर में चलता हुआ, क्षणभर में ऊँचा बोलता हुआ, क्षण में ही मदहोश की तरह चुपचाप (अक्रूर
को कृष्ण देखते हैं)। ८. प्रसन्नतापूर्वक शीघ्र पैरों से चलते, हिलते, हुलते एवं गिरते हुए
मोतियों के गुण के फेन समह मानो अच्यत समुद्र में सरिता के
प्रवाह की तरह सम्मुख आए हुए अक्रूर का वे स्वागत करते हैं। * अनुवादक-डॉ० उदयचन्द जैन, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर ।
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