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प्राकृत भारती अभाव में छाया न मिलने के कारण, घास वाले प्रदेश में जब वह सो रही थी, तभी समीप एक भुजंग आया
गाथा ४-"जिसके नेत्र रक्तवर्ण के थे, जो काला था तथा जिसकी दोनों जीभें चल रही थीं और जो प्रचण्ड फंकार के शब्द से
सभी प्राणियों को भय से आतंकित कर रहा था।" [७] उस सर्प-शरीरधारी नागकुमार देव ने मनुष्य-भाषा में अत्यन्त संतुलित पदों के द्वारा उसे जगाया एवं उससे इस प्रकार बोला
गाथा ५-- "हे वत्से, भयभीत होकर मैं तेरे पास आया हूँ। मेरे पीछे जो ये गारु-डिक (सपेरे) लोग लगे है, वे मुझे बाँधकर ले जाएँगे।"
गाथा ६-इसलिए तुम मुझे अपनी गोद में शरण दो और शीघ्र ही अपने वस्त्रों से ढंक दो। मेरी यहाँ सुरक्षा करो, इसमें क्षणमात्र भी विलम्ब मत करो।"
___ गाथा ७-"नागकुमार के शरीरधारी इन गारूडिकों के मंत्र के प्रभाव से देवी-शक्तियाँ भी उनकी आज्ञा को भंग करके मैं समर्थ नहीं। अतः हे पुत्री, तू मेरी रक्षा कर।"
गाथा ८-"निर्भय होकर, वत्से, मेरे कथनानुसार मेरी रक्षा करो।" (ऐसा सुन कर) विद्युत्प्रभा भी करुणार्द्र हो उठी एवं उसने
उस नाग को अपनी गोद में छिपा लिया। [८] इसके बाद उसी समय हाथ में औषधिवलय (मंत्र-तंत्र संबंधी कोई
गोलाकार जड़ी बूटी) धारण किये हुए उस भुजंग के पीछे-पीछे हो शीघ्रतापूर्वक वे गारुडिक लोग आये और उन्होंने उस ब्राह्मण-पुत्री विद्युत्प्रभा से पूछा-“बाले, इस मार्ग से जाते हुए तुमने किसी महानाग को देखा है ?" यह सुनकर उसने उत्तर में कहा-हे राजन् ! मुझसे क्यों पूछते हैं ? क्योंकि मैं तो अपने शरीर को वस्त्र से ढंककर
सो रही थी। [९] यह उत्तर सुनकर उन्होंने परस्पर में विचार-विमर्श किया कि यदि
इस बाला ने वैसा नाग देखा होता तो भयाक्रान्त कुरंगी के समान यहाँ से संत्रस्त होकर भाग खड़ी होती। अतः नाग यहाँ नहीं आया होगा । तदनन्तर वे आगे-पीछे उसे देखते हए तथा उसे कहीं भी प्राप्त न कर हाथ से हाथ मलते हुए तथा दाँतों से ओंठ काटते हुए म्लानमुख होकर वापिस हुए और अपने-अपने घर चले गये।
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