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प्राकृत भारती
रैवतक पर्वत पर जाती हुई वह बीच रास्ते में ही वर्षा से भींग गई और उस घनघोर वर्षा के कारण साथ वाली दूसरी साध्वियाँ इधरउधर बिखर गईं तब वह राजमती वर्षा के होते हुए अंधकार युक्त एक गुफा में जाकर ठहर गई ।
३४. ( भींगे हुए) कपड़ों को सुखाती हुई ( वह राजमती ) यथा - जात ( जन्म के समय बच्चा जैसा निर्वस्त्र होता है वैसी ) निर्वस्त्र हो गई । उसे निर्वस्त्र देखकर ( उस गुफा में पहले से ध्यानस्थ बैठे हुए ) रथनेमि मुनि का चित्त विचलित हो गया । गुफा में प्रवेश करते समय अन्धकार के कारण राजमती को रथनेमि दिखाई नहीं दिया, किन्तु पीछे राजमती ने भी उसे देखा ।
: ३५. वहाँ एकान्त स्थान में उस संयम से युक्त रथनेमि को देखकर वह राजमती अत्यन्त भयभीत हुई ( इसलिए ) दोनों भुजाओं से अपने अंगों को ढँककर काँपती हुई बैठ गई ।
३६. इसके बाद समुद्र विजय का वह राजपुत्र रथनेमि राजमती को डरी हुई और काँपती हुई देखकर इस प्रकार के वचन कहने लगा३७. 'हे भद्रे ! हे कल्याणकारिणी ! हे सुन्दर रूपवाली ! हे मनोहर बोलने वाली । हे श्रेष्ठ शरीर वाली ! मैं रथनेमि हूँ | तू मुझे सेवन कर | तूझे किसी प्रकार की पीड़ा नहीं होगी । ( अर्थात् हे सुन्दरी ! तू निर्भय होकर मेरे समागम में आ । तूझे किसी प्रकार का कष्ट न होगा । )
३८. निश्चय ही मनुष्य जन्म का मिलना अत्यन्त दुर्लभ है । इसलिए हे भद्रे ! इधर आओ हम दोनों भोगों का उपयोग करें । फिर भुक्तभोगी होकर बाद में ( अपन दोनों ) जिनेन्द्र भगवान् के मार्ग का अनुसरण करेंगे ।
३९. संयम में हतोत्साह बने हुए और स्त्री परीषह से पराजित उस रथनेमि को देखकर भय रहित बनी हुई राजमती ने उस समय गुफा में अपने (शरीर ) को वस्त्र से ढक लिया ।
४०. इसके बाद नियम और व्रतों में भली-भाँति स्थित वह राजकन्या राजमती जाति कुल तथा शील की रक्षा करती हुई उस ( रथनेमि ) को इस प्रकार कहने लगी
४१. 'यदि तू रूप में वैश्रमण देव के समान हो और लीला विकास में नल कुबेर के समान हो । अधिक तो क्या यदि साक्षात् इन्द्र भी हो तो भी मैं तेरी इच्छा नहीं करती ।'
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