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अशोक के अभिलेख
२१३ ९. इस धर्माचरण को बढ़ायेंगे और कल्पान्त तक धर्म और शील में स्थित
रहते हुए धर्म का अनुशासन करेंगे। १०. क्योंकि जो धर्मानुशासन है वही श्रेष्ठ कार्य है। शील रहित (व्यक्ति)
के धर्माचरण भी नहीं होता है । इसलिए इस अर्थ की ११. वृद्धि और लाभ साधु है। इसी अर्थ के लिए यह लिखवाया गया। इस __ अर्थ की वृद्धि में लोग लगें और हानि । १२. न चाहें । अभिषेक के १२वे वर्ष में देवानांप्रिय प्रियदर्शी राजा के द्वारा यह लिखवाया गया।
पंचम अभिलेख १. देवानांप्रिय प्रियदर्शी राजा ने ऐसा कहा। कल्याण (भलाई का काम
करना) दुष्कर है। जो कल्याण का प्रारम्भ करता है, वह दुष्कर
कार्य करता है। २. किन्तु मैंने बहुत से कल्याण के कार्य किये हैं। यदि मेरे पुत्र, पौत्र,
और उनके बाद जो मेरी सन्तति (अपत्य) कल्पान्त तक (इसका)
अनुसरण करेंगे (तो वह) सुकृत ३. (पुण्य) करेंगी। किन्तु जो इसका एक अंश भी नष्ट करेगा वह
दुष्कृत (पाप) करेगा, क्योंकि पाप करना सरल है। बहुत समय
बीता। ४. भूतकाल में धर्ममहामात्र नाम (के अधिकारी) न थे । परन्तु राज्या
भिषेक के तेरह वर्ष पश्चात् मेरे द्वारा धर्ममहामात्र नियुक्त किये गये हैं । वे धर्म की स्थापना के लिए सब प्राखण्डों (धार्मिक सम्प्रदायों)
में व्याप्त हैं। ५. उन धर्मयुक्तों का जो यवन, कंबोज, गंधार, राष्ट्रिक, प्रतिष्ठानिक
तथा अन्य अपरान्तों (पश्चिमी सीमा प्रान्तों) में भूतक तथा आर्य में ६. सुख के लिए धर्मयुतों की लोभ से मुक्ति के लिए नियुक्त हैं । बन्धन
बद्ध (कैदी) की सहायता के लिए ७. बच्चों वाले, टोना-जादू से आविष्ट तथा वृद्धों में वे व्याप्त हैं।
पाटलिपुत्र में, बाहर के सब नगरों में, जो भी अन्य ८. मेरी जाति के सब लोग हैं (उन सबसे) सर्वत्र नियुक्त हैं। ये जो
धर्ममहामात्र है (उनके लिए भी)९. ये धर्ममहामात्र है । इस प्रयोजन के लिए यह धर्मलिपि लिखी गयी।
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