Book Title: Prakrit Bharti
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 225
________________ २१६ प्राकृत भारती इस श्रेष्ठ सट्टक में जो रस का स्रोत है, चण्डपाल जो धरती पर मानो चन्द्रमा है, चक्रवर्ती पद के निमित्त कुन्तल देश के अधिपति की पुत्री से विवाह करते हैं। (११) अच्छा तो आइए, महाशय ! इसके अनन्तर जो करना है, वह करें। महाराज की देवी की भूमिका में आर्या आपकी भार्या परदे के पीछे खड़ी हैं। ( घूमकर दोनों चले जाते हैं ) । प्रस्तावना समाप्त । ( इसके उपरान्त राजा, देवी, विदूषक विभवानुरूप सपरिवार प्रवेश करते हैं तथा यथोचित स्थान ग्रहण करते हैं । ) राजा--देवी, दक्षिणाधिपनरेन्द्रनंदिनी, इस बसंतारम्भ में बधाई है। युवतियाँ अब अपने बिम्बाधरों पर चिकनी ( मोम इत्यादि ) नहीं मलती हैं और न सुगंधित तेल का प्रचुरता से प्रयोग कर वाणी की रचना ही करती हैं। वे चोलियाँ भी नहीं पहनती हैं और अपने मुखों पर कंकुम का लेप देने में भी अत्यन्त ही शिथिल हैं । तो समझना चाहिए कि शिशिर को जीतकर बरबस वसंतोत्सव आ धमका है । (१२) देवी-मैं भी बधाई दूंगी। शीतकाल बीत जाने पर अब, युवतियाँ अपने रत्न जैसे दाँतों को साफ करती हैं और थोड़ा-थोड़ा चंदन का भी प्रयोग प्रारम्भ कर देती हैं । अब स्त्री-पुरुष आंगन के मंडपों में सोते हैं और उनके पादांत में चादर सिमटी पड़ी रहती है। (१३) ( नेपथ्य में ) दोनों वैतालिकों में से एक-हे पूर्वदिशारूपी नायिका के प्रेमी आपकी जय हो । आप चम्पा के चम्पककर्णपूर हैं । आप राढ़ा के हर्षोल्लास हैं । विक्रम से आपने कामरूप को जीता है। आप हरिकेली के साथ क्रीड़ा करने वाले हैं। आपने कर्णसुवर्ण के दान को तुच्छ समझा है। सब तरह से यह वसंतारम्भ आपके लिए रमणीय और सुखद हो । पाण्ड्य देश की रमणियों के कपोलों को पुलकित करने वाली, कांची देश के मुग्धाओं के भी मान को खण्डित करने वाली, चोल देश की रमणियों की चोलियों और अलकों में Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268