________________
उत्तराध्ययन सूत्र
२०५. ४२. 'हे अपयश के इच्छुक ! तुझे धिक्कार हो, जो तू असंयम जीवन के
लिए वमन किये हुए को पुनः पीना चाहता है। इसकी अपेक्षा तो ( तेरे लिए मर जाना श्रेष्ठ है ) क्योकि संयम धारण करके असंयम में आना निन्दनीय है ऐसे असंयमपूर्ण और पतित जीवन की अपेक्षा तो
संयमावस्था में ही मृत्यु हो जाना अच्छा हैं । ४३. मैं राजमती भोजराज ( उग्रसेन की पुत्री हूँ) और तू अन्धकवृष्णि
है। गन्धक कूल में ( उत्पन्न हुए सर्प के समान ) मत हो और मन को
स्थिर रखकर संयम का भली प्रकार पालन कर। ४४. हे रथनेमि ! तुम जिन जिन स्त्रियों को देखोगे और यदि उन उन पर
बुरे भाव करोगे तो वायु से प्रेरित हड नामक वनस्पति की भाँति
अस्थिर आत्मा वाले हो जाओगे । ४५. जिस प्रकार ग्वाल या भंडारी उस द्रव्य का स्वामी नहीं है। इसी
प्रकार तू भी श्रमणपन का अनीश्वर हो जायेगा। ४६. वह रथनेमी उस संयमवती साध्वी के सुभाषित वचनों को सुनकर
धर्म में स्थिर हो गया। जैसे अंकुश से हाथी वश में हो जाता है। ४७. मन गुप्त, वचन गुप्त, काय गुप्त, जितेन्द्रिय और व्रतों में दृढ़ एवं
निश्चल होकर ( उस रथनेमि ने ) जीवन पर्यन्त साधु धर्म का पालन
किया। ४८. उग्र तप का सेवन करके राजमती और रथनेमि दोनों ही केवली हो
गये। ( तत्पश्चात् ) सभी कर्मों का क्षय करके सबसे प्रधान सिद्ध गति
को प्राप्त हुए। ४९. तत्त्वज्ञ पंडित विचक्षण पुरुष ऐसा ही करते हैं। ( अर्थात् ) भोगों से
निवृत हो जाते हैं जैसे वह पुरुषों में उत्तम रथनेमि ( भोगों से निवृत हो गया अर्थात् जो विवेकी होते हैं वे विषय भोगों के दोषों को जानकर रथनेमी के समान भोगों का परित्याग कर देते हैं ) ऐसा मैं कहता हूँ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org