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प्राकृत भारती
७८. उस पाप से वह जन्म, जरा और मरण रूप श्वापदों (सिंह, व्याघ्र ___ आदि क्रूर जानवरों से) आकीर्ण अर्थात् भरे हुए संसार रूपी कान्तार
(भयानक वन) में पड़कर अनन्त दुःख को पाता है। ७९. इस तरह मद्यपान में अनेक प्रकार के दोषों को जान करके मन,
वचन और कार्य, तथा कृत, कारित और अनुमोदना से उसका त्याग करना चाहिए।
मधुसेवन दोष-वर्णन ८०. मद्यपान के समान मधु-सेवन भी मनुष्य के अत्यधिक पाप को उत्पन्न
करता है। अशुचि (मल-मूत्र वमनादिक) के समान निंदनीय इस
मधु का प्रयत्नपूर्वक त्याग करना चाहिए। ८१. भोजन के मध्य में पड़ी हुई मक्खी को भी देखकर यदि मनुष्य उसे
उगल देता है अर्थात् मुंह में रखे हुए ग्रास को थूक देता है तो आश्चर्य है कि वह मधुमक्खियों के अंडों के निर्दयतापूर्वक निकाले हुए घृणित रस को अर्थात् मधु को निर्दय या निघृण बनकर कैसे पी
जाता है। ८२. भो-भो लोगों, जिह्वेन्द्रिय-लुब्धक (लोलुपी) मनुष्य के आश्चर्य को
देखों, कि लोग मक्खियों के रस स्वरूप इस मधु को कैसे पवित्र
कहते हैं। ८३. लोक में भी यह कहावत प्रसिद्ध है कि जो निर्दयी बारह गाँवों को
जलाता है उससे भी अधिक पापी वह है जो मधु-मक्खियों के छत्ते को
तोड़ता है। ८४. इस प्रकार के पाप-बहुल मधु को जो नित्य चाटता है-वह नरक
में जाता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है । ऐसा जानकर मधु का त्याग करना चाहिए।
मांसदोष-वर्णन ८५. मांस अमेध्य अर्थात् विष्टा के समान है, कृमि अर्थात् छोटे-छोटे
कीड़ों के, समूह से भरा हुआ है, दुर्गन्धियुक्त है, वीभत्स है और पैर से भी छुने योग्य नहीं है, तो फिर भला वह मांस खाने के लिए योग्य कैसे हो सकता है।
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