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प्राकृत भारती
दिया कि मेरे द्वारा यह जहाँ नष्ट हुआ था वह स्थान स्वयं आपने देख लिया है। मैंने कहा कि मुझे किसी दूसरे ने बताया है। मैं वास्तविक अर्थ को नहीं जानता हूँ। कनकमती ने कहा कि 'इन व्यर्थ के वचनों से क्या और अधिक क्या कहना। यह ठीक ही हुआ कि जो आपने स्वयं यह सब जान लिया । किसी दूसरे के द्वारा मैं कही जाती तो वह ठीक नहीं था। क्योंकि अब अग्नि में प्रवेश से भी मेरी शुद्धि नहीं है।' मैंने पूछा-'अग्नि प्रवेश की बात कहाँ से आ गई। उसने कहा--'आर्यपुत्र स्वयं जान जायेंगे। जैसे इतना जाना है वैसे शेष भी जानेंगे।' ऐसा कहकर खेदयुक्त चिन्ता से दुखी वह कनकमती बाँयें हथेली पर सिर को झुकाकर रह गई । तब मैं थोड़ी देर वहाँ ठहरकर मतिसागर के साथ सामान्य बातचीत कर और अन्य कथाओं के द्वारा कनकमती को
प्रसन्न कर अपने भवन को चला गया। [१९] फिर पूर्व क्रम के अनुसार एक प्रहर रात्रि के व्यतीत होने पर कनक
मती के घर गया । मैंने दास-दासियों के साथ कुछ-कुछ अस्पष्ट अक्षरों को बोलती हुई दुखी मन वाली कनकमती को देखा और उनके पास अदश्य रूप में बैठ गया। तब थोड़ी देर में एक दासी ने कहा कि हे स्वामिनी! जाने की तैयारी की जाय, समय बीत रहा है। वह विद्याघरों का स्वामी क्रोधित हो जायेगा। तब लम्बी श्वास लेकर कनकमती ने कहा-'हे सखी ! मैं क्या करूँ ? मैं मंदभागिनी हूँ। मैं उस विद्याधर राजा के द्वारा कुँवारी अवस्था से ही यह प्रतिज्ञा ग्रहण करा दी कि जबतक मैं तुम्हें आज्ञा न हूँ तब तक तुम किसी आदमी को नहीं चाहोगी, और मैंने उस प्रतिज्ञा को स्वीकार कर लिया था। पिता के अनुरोध से विवाह भी सम्पन्न हो गया। प्रियतम ने भी मुझे स्वीकार कर लिया और मैं भी गुण रूप वाली होकर, आकर्षित हृदय वाली उस पति को चाहने लगी। किन्तु मेरे पति के द्वारा विद्याधर के वृत्तान्त को जान लिया गया। इसलिए मैं नहीं जानती कि इसका क्या अन्त होगा ? इस कारण से मेरा हृदय आशंकित है। या तो यह मेरा प्रियतम उस विद्याधर के क्रोध की अग्नि में पतंगों की तरह भस्म हो जायेगा अथवा वह मुझे ही मार डालेगा अथवा कुछ अन्य होगा ? इस प्रकार सभी तरह से दुखी मैं नहीं जानती कि इस शरीर से क्या करना है । अपने बल से युक्त वह विद्याधर दृष्ट है और पति भी दृढ़ रूप से आशक्त विवाह को नहीं तोड़ेगा। यौवन का प्रारम्भ भारी है । पिता और श्वसुर के घर में अत्यन्त निन्दित होने वाली
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