Book Title: Prakrit Bharti
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 202
________________ ८. ज्ञाताधर्म कथा (क) दो कछुए (चतुर्थ अध्ययन) [१] श्रीसुधर्मा स्वामी, जम्बूस्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं हे जम्बू ! उस काल और समय में वाराणसी (बनारस) नामक नगरी थी। यहाँ उसका वर्णन औपपातिक सूत्र के नगर के समान कहना चाहिए। [२] उस वाराणसी नगरी के बाहर उत्तर-पूर्व दिशा अर्थात् ईशान कोण में, गंगा नामक महानदी में मृतगंगातीर हृद नामक एक हृद था। उसके अनुक्रम से सुन्दर सुशोभित तट थे। उसका जल गहरा और शीतल था । वह हृद स्वच्छ एवं निर्मल जल से परिपूर्ण था। कमलिनियों के पत्तों और फूलों की पांखुड़ियों से आच्छादित था। बहुत से उत्पलों (नीले कमलों) पद्मों (लाल कमलों), कुमुदों (चन्द्रविकासी कमलों), नलिनों तथा सुभग, सौगंधिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र आदि कमलों से तथा केसर प्रधान अन्य पुष्पों से समृद्ध था। इस कारण वह आनन्दजनक, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप था। [३] उस हद में सैकड़ों, सहस्रों और लाखों मच्छों, कच्छों, ग्राहों. मगरों और सुंसुमार जाति के जलचर जीवों के समूह भय से रहित, उद्वेग से रहित सुख पूर्वक रमते-रमते विचरण करते थे। [४] उस मृतगंगातीर हृद के समीप एक बड़ा मालुका कच्छ था। पूर्व का वर्णन यहाँ कहना चाहिए। उस मालुका कच्छ में दो पापी शृगाल निवास करते थे। वे पापी, चंड (क्रोधी) रौद्र (भयंकर) इष्ट वस्तु को प्राप्त करने में दत्तचित्त और साहसी थे। उनके हाथ अर्थात् अगले पैर रक्तरंजित रहते थे। वे माँस के अर्थी, मांसाहारी, मांसप्रिय एवं मांसलोलुप थे। मांस की गवेषणा करते हुए रात्रि और सन्ध्या के समय घूमते थे और दिन में छिपे रहते थे। [५] तत्पश्चात् मतगंगातीर नामक हृद में से किसी समय, सूर्य के बहत समय पहले अस्त हो जाने पर, संध्याकाल व्यतीत हो जाने पर, जब * अनुवादक--डॉ० हुकमचन्द जैन, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर १३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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