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प्राकृत भारती
१५. आत्मा (अर्थात् मन और इन्द्रियाँ) ही दमन करने योग्य है क्योंकि
आत्मा (मन और इन्द्रियों का दमन) बड़ा कठिन है। आत्मा को दमन
करने वाला इस लोक में और परलोक में सुखी होता है। १६. (परवश होकर) दूसरों से वध और बन्धनों से दमन किये जाने की
अपेक्षा मुझे (अपनी इच्छा से ही तप और संयम से) आत्मा का दमन
करना श्रेष्ठ है। १७. (विनीत शिष्य को चाहिए कि वह) प्रकट में अथवा एकान्त में वचन से
और कार्य से कभी भी गुरु के विपरीत आचरण नहीं करे। १८. (विनीत शिष्य) गरु के पास में बराबर न बैठे और उनके आगे भी न
बैठे और पीछे भी (अविनयपने से) न बैठे, न उनके घुटने से अपने घुटने का स्पर्श हो (तथा) शय्या पर (सोते हुए या बैठे हुए ही) वचन
न सुने । किन्तु आसन के नीचे उतर कर उत्तर देवे। १९. विनीत साधु पलाठी मार कर अथवा पक्षपिंड करके न बैठे और गुरु
के सामने पाँव पसार कर न बैठे। २०. गुरु के द्वारा बुलाये जाने पर (विनीत शिष्य को चाहिए कि वह)
कभी भी चुपचाप बैठा न रहे, (किन्तु गुरू की) कृपा को चाहने वाला मोक्षार्थी साधु सदैव गुरु के समीप (विनय के साथ) उपस्थित होवे ।
(ख) रथनेमिप्रव्रज्या (बाइसवां अध्ययन) १. शौर्यपुर (नामक) नगर में (चक्र, स्वस्तिक, अंकुश आदि तथा सत्य
शूरवीरता आदि) राज-लक्षणों से युक्त तथा महाऋद्धि वाले वसुदेव
नाम के राजा थे। २. उस ( वसुदेव) के रोहिणी और देवकी (नाम की) दो पलियाँ
थीं। उन दोनों के इष्ट (सभी को प्रिय लगने वाले) राम और केशव
दो पुत्र थे। ३. (उसी) शौर्यपुर नगर में महाऋद्धि वाले राजा के लक्षणों से युक्त समुद्र
विजय नामक राजा थे। ४. उस (समुद्रविजय) के शिवा नाम की पत्नी थी। उसके पुत्र महायशस्वी,
परम जितेन्द्रिय, तीनों लोकों के नाथ भगवान् अरिष्टनेमि थे।
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