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अगडदत्त कथा
१८७.
२१. इस प्रकार उस राजकुमार अगडदत्त ने संतुष्ट होकर सभी प्रकार के क्रूर कर्मों को छोड़ दिया और सभी कलाओं को सीखता हुआ उसी घर में रहने लगा ।
२२. गुरुजनों के प्रति अत्यधिक विनय गुण से युक्त चित्त वाले तथा सभी व्यक्तियों के मन को आनन्दित करने वाले उस राजकुमार ने अल्पकाल में ही बहत्तर प्रकार की कलाएँ सीख लीं।
२३. इस प्रकार कलाओं का ज्ञाता वह कुमार अगदत्त परिश्रम करते हुए तथा प्रतिदिन अत्यधिक तत्पर रहते हुए उस भवन के उद्यान में ही रहने लगा ।
२४. उस उद्यान के समीप ही उस नगर के प्रधान सेठ का घर था । उस अत्यधिक सुन्दर, उन्नत और विस्तृत भवन की खिड़की उसी उद्यान की ओर खुलती थी ।
२५. उस नगर सेठ की मदनमंजरी नाम की एक सुन्दर कन्या थी, जो प्रतिदिन अपने घर की छत पर बैठ कर उस कुमार अगडदत्त को देखा करती थी ।
२६. उस राजकुमार के प्रति प्रेम में आसक्त होकर वह मदनमंजरी एकचित्त होकर उसकी ओर देखती हुई तथा उसी का ध्यान करती हुई वह उस पर फूल, फल, पत्ते और कंकड़ फेंका करती थी ।
२७. गुरु की आशंका से और विद्या ग्रहण करने के लोभ से, हृदय में स्थित होने पर भी उस कन्या मदनमंजरी की ओर वह राजकुमार अगडदत्त दृष्टि उठाकर देखता तक न था ।
२८. अन्य किसी दिन उस मदनमंजरी ने कामदेव के बाण के प्रसार से संतप्त होकर कलाओं को ग्रहण करने में संलग्न उस राजकुमार पर अशोक का एक गुच्छा फेंका।
२९. राजकुमार अगडदत्त ने उसी दिन कंकेल्लि लता के पत्ते के समान काँपती हुई सुन्दर शरीर वाली तथा अत्यन्त लज्जा से युक्त उस मदनमंजरी को विशेष दृष्टि से देखा और सोचने लगा
३०. "क्या यह कोई देवी है अथवा नाग कन्या ? क्या यह लक्ष्मी है अथवा प्रत्यक्ष ही सरस्वती आ गई है ?"
३१. " अतः मैं इससे पूछें कि यह यहाँ किस काम से बैठी है ?" यह सोचकर वह राजकुमार उससे स्पष्ट रूप से इस प्रकार पूछता है
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