Book Title: Prakrit Bharti
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 197
________________ “१८८ प्राकृत भारती ३२. "हे सुन्दर शरीर वाली श्रेष्ठ कन्ये, तुम कौन हो ? विद्या-ग्रहण करने में संलग्न हुए मुझ पर क्यों तुम अपने को प्रगट कर रही हो और मुझे विघ्न उपस्थित करती हो।" ३३. उस कुमार अगड़दत्त के वचन सुनकर विकसित नेत्र वाली उस मदनमंजरी ने हँसते हुए मुख से अपने दाँतों की किरणों को प्रकट करते हुए इस प्रकार कहा३४. "मैं नगर के प्रधान सेठ बन्धुदत्त की कन्या हूँ, मेरा नाम मदनमंजरी है और मेरा विवाह भी इसी नगर में हुआ है।" ३५. "हे सुन्दर राजकूमार, कामदेव के समान सुन्दर तुम को जब से मैंने देखा है उसी दिन से मेरे हृदय में असन्तोष रूपी वृक्ष बढ़ रहा है।" ३६. "तथा मेरे नेत्रों की नींद समाप्त हो गयी है, देह में जलन हो रही है, भोजन भी रुचिकर नहीं लग रहा है तथा सिर में अत्यन्त वेदना हो रही है।" ३७. "तब तक ही सुख होता है, जब तक किसी को अपना प्रियतम न बनाया जाय । जिसने प्रियजन के साथ प्रेम कर लिया, वह स्वयं को अनेक दुःखों में डाल देता है।" । ३८. "पूर्वजन्म में किये हुए कर्मों से प्रेरित होकर कोई बेचारा व्यक्ति सुख प्राप्ति की इच्छा रखता हुआ दुर्लभ व्यक्ति के अनुराग में पड़ जाता है।" ३९. “युवतियों के मन का हरण करने वाले हे राजकुमार! यदि तुम मेरे साथ समागम नहीं करते हो, तो मैं तुम्हारे सामने ही आत्महत्या कर लँगी और तुम निश्चय ही जानोगे कि संसार में मैं जीवित नहीं हूँ।" ४०. उस बाला मदनमंजरी के वचनों को सुनकर वह अगडदत्त हृदय में इस प्रकार विचारने लगा-“काम रूपी भयंकर अग्नि में जले हुए अंगों वाली यह मदनमंजरी अब स्पष्ट और निश्चय ही मर जायगी।" ४१. “महाभारत और रामायण आदि शास्त्रों में यह स्पष्ट ही सुना जाता है कि कामुक व्यक्तियों के काम-वासना की दस अवस्थाएँ होती हैं।" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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