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श्री कूर्मापुत्र चरित
१८१ ५७. वह कुछ भी नहीं बोलती हुई मन में अत्यन्त विषाद के भार को
उठाती हुई आग्रहपूर्वक बार-बार पूछे जाने पर समस्त वृत्तान्त को
कहती है। ५८. 'हे स्वामी ! मैंने अवधि ज्ञान के द्वारा आपके जीवन को थोड़ा ही
जानकर आयुष्य के स्वरूप को केवली के पास पूछा और उन्होंने
स्वरूप समझाया है। ५९. हे नाथ ! इस कारण से मैं दुःख की पीड़ा से युक्त शरीरवाली
विधि के विलास के टेढ़े हो जाने पर तुम्हारा विरह कैसे सहन
करूंगी?' ६०. कुमार ने कहा-'हे यक्षिणी ! हृदय के भीतर खेद मत करो। जल के
बिन्दु के समान चंचल जीवन में कौन स्थिरता मानता है ? ६१. हे प्राणप्रिये ! यदि मेरे ऊपर स्नेह करती हो तो केवली के पास में
मुझे छोड़ दो, जिससे मैं अपना कल्याण कर सकूँ। ६२. तब उसकी अपनी शक्ति के द्वारा केवली के पास में कुमार ले जाया
गया। केवली को अभिवंदित कर वह यथोचित स्थान पर बैठा । ६३. तब माता एवं पिता रूप में स्थित मुनि उस कुमार को बहत समय बाद
देखकर पुत्र के स्नेह से रोने लग गये। ६४. उन्हें न जानते हुए कुमार को केवली के द्वारा आदेश दिया गया कि
हे कुमार, अपने माता-पिता रूप मुनि को प्रणाम करो। ६५. वह केवली से पूछता है-'हे प्रभु! इनको वैराग्य कैसे हुआ ? कहिए।'
तब मुनि के द्वारा पुत्र वियोग के कारण उसे बतलाया गया। ६६. इस प्रकार सुनकर वह कुमार जैसे मोर बादल को देखकर, जैसे
चकोर चन्द्र को और जैसे चक्रवाक प्रचण्ड सूर्य को देखकर--- ६७. जैसे बछड़ा अपनी गाय को, जैसे कोयल बसंत ऋतु की सुगन्धि को
देखकर सन्तोष को प्राप्त होता, उसी प्रकार हर्ष से युक्त वह कुमार
रोमांचित और सन्तुष्ट हुआ। ६८. अपने माता-पिता रूप मुनि के कंठ से लगकर रोते हुए उस कुमार को
उस यक्षिणी द्वारा मधुर वचनों से चुप कराया गया। ६९. अपने अंचल के वस्त्र से आँसू से भरे हुए कुमार के नेत्रों को वह यक्षिणी
पोंछती है। अरे ! महामोह का उल्लंघन करना कठिन है।
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