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अनिचन्द कथानक
हूँ। यह संसार की रीति है। कार्य की गति अत्यन्त कुटिल है । इसलिए इस चिन्ता से बुरी तरह दुःखी हूँ।' इस बात को सुनकर उस दासी ने कहा-'यदि ऐसा है तो मैं ही वहाँ जाती हूँ और कह दूंगी कि (आपका) सिर दुःखता है तथा तब पता करूंगी कि वह विद्याधर क्या करता है ?' कनकमती ने कुछ देर तक यह सोचकर कहा कि
ठीक है, ऐसा ही करो। [२०] उसके बाद ही कनकमती के द्वारा विमान तैयार किया गया । मैंने
सोचा-'इसने ठीक ही किया । मैं ही वहाँ जाकर उस विद्याधर राजा को झुकाता हूँ और उसके उस नाटक का अन्त करता हूँ तथा जीते हुए लोक को नष्ट कर देता हूँ।' ऐसा सोचते हुए उस दासी के साथ विमान के एक स्थान पर चढ़ गया। उसी प्रकार से वह विमान उसी
स्थान को गया। [२१] जब तक ऋषभ स्वामी का स्नान करके नृत्य प्रारम्भ हुआ वह दास
चेटी उस स्थान को पहुंची। विमान से निकलकर एक स्थान को बैठ गई और अन्य विद्याधर के द्वारा पूछी गई कि तुम देर से क्यों आई ? (तुम, अकेली क्यों आई ?) और कनकमती कहाँ है ? उसने कहा, कनकमती की तबीयत ठीक नहीं है, अतः मैं भेजी गई हूँ ? उसे सुनकर विद्याधर राजा ने कहा कि तुम्हीं नृत्य करो। मैं उसके शरीर को ठीक कर दूंगा। ऐसा कहने पर दासी दुखी हुई। मैंने अपना दुपट्टा बाँध लिया तथा हाथ में खड्गरत्न ले लिया। तभी नृत्य विधि समाप्त हुई । देव घर से विद्याधर निकला और बालों को पकड़कर चेटी से बोला कि 'अरी दुष्ट दासी, पहले तुम्हारे ही रुधिर प्रवाह से मेरी क्रोध अग्नि शान्त हो । बाद में तुम्हारी स्वामिनी के लिए यथोचित करूंगा।' उस बात को सुनकर दासी ने कहा-'तुम्हारे जैसे लोगों के स्वार्थ को इसी प्रकार से अन्त होना है । अतः जो तुम्हें अनुकूल हो सो करो। ऐसा हम लोगों ने पहले ही सोच लिया था, इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं है।' उसके बाद ही दृढ़ रूप से क्रोधित उस विद्याधर ने कहा कि 'पागल की तरह क्या बोलती है ? इष्ट देवता को स्मरण कर लो अथवा जिसकी शरण में जाना हो चली जाओ।' तब दासी ने कहा___ गाथा ११–'देवता, विद्याधर, मनुष्य और तिर्यंचों के वत्सल तीनों लोक के गुरू इन भगवान् ऋषभदेव को ही स्मरण करती हूँ।'
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