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प्राकृत भारती
गये । कनकमती भी दासियों के साथ विमान पर चढ़ी । मैं भी उसी
प्रकार से चढ़ गया । कनकमती विमान से भवन को आ गयी। [१४] (विमान से) निकलकर मैं, अपने भवन को गया। बिना किसी के
देखे ही अपने भवन में प्रविष्ट हो गया। एक प्रहर शेष रात्रि में सो गया। सूर्य के उगने पर उठा । उचित कार्य किए और मतिसागर नाम का मन्त्री-पुत्र, मेरा मित्र आ गया। मैंने उसे घुघरू दे दिया और उसे कहा कि कनकमती के पास जाकर मेरी तरफ से यह कहो कि 'यह मेरे द्वारा पड़ी हुई प्राप्त की गई है। उसने कहा
'ऐसा करूंगा।' [१५] मैं कनकमती के घर गया। मैंने उसे देखा। दिये गये आसन पर
बैठा, वह मेरे पास में पट्ट के मंच पर बैठी। गोटियों द्वारा जुआ प्रारम्भ हुआ। उसके द्वारा मैं जीत लिया गया। कनकमती ने गहना माँगा। मतिसागर ने वह घुघरू उसे समर्पित कर दिया और उसके द्वारा वह घुघरू पहचान ली गई । उसने कहा-'यह कहाँ पर प्राप्त हुई ।' मैंने कहा-'इससे क्या करना है ?' उसने कहा-'ऐसे ही पूछा।' मैंने कहा-'यदि कार्य हो तो तुम ले लो। हमने उसे पड़ी हुई पाया था। उसने पूछा-'किस स्थान पर प्राप्त की थी?' मैंने पूछा'तुमसे कहाँ गिरी थी ?' उसने कहा-'मैं नहीं जानती।' मैंने कहा'यह मतिसागर ज्योतिषी है, सब भूत भविष्य को जानता है, यह कहंगा।' कनकमती ने मतिसागर से पूछा। उसने भी मेरे अभिप्राय को जानकर कहा कि कल निवेदन करूँगा। उसने कहा-'ठीक है।'
और मैं उसके साथ पासे खेलकर अपने घर को गया । [१६] उसके बाद सूर्यास्त के एक प्रहर रात्रि के बीत जाने पर मैं अकेले
कनकमती के भवन पर गया और उसको उसी तरह से मैंने देखा। उसी प्रकार रात्रि में उसे (दासी) पूछकर विमान की रचना की गयी। और उस पर तीनों जनीं चढ़ बेठी। मैं भी उसी तरीके से उस स्थान तक पहुँचा। पहले के अनुसार ही अभिषेक आदि करके नृत्य विधि आरम्भ की। वीणा बजाते समय कनकमती के पैर में से झाँझर निकल पड़ा। मैंने उसको ले लिया। जाते समय उसने उसको ढूँढा पर उसे
मिला नहीं। फिर विमान में चढ़कर वह अपने भवन को आई। [१७] मैं भी रात्रि के अन्तिम प्रहर में अपने भवन को पहुँच गया। सो
गया। किसी ने मुझे देखा नहीं। प्रातःकाल में जाग गया । मतिसागर
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