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प्राकृत भारती देकर वह राजा अपनी प्रियतमा "आरामशोभा" को हाथी पर सवार कर अत्यन्त प्रसन्नचित्त होकर अपने नगर की ओर चला ।
गाथा १२ - इस प्रकार, कल्पलता के समान आरामशोभा को प्राप्त कर राजा ने अपने को कृतार्थ माना, अथवा मनोरथ को पूर्णरूप से प्राप्त कर कौन सन्तोष को प्राप्त न होगा ?
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गाथा १३ – दिव्य हाव-भावों से युक्त एवं शृंगार रूपी तरंगों वाली उस तरंगिणी विद्युत्प्रभा के मनोहारी हृदय का निर्माण ब्रह्मा यदि विशिष्ट तत्त्वों से किया हो, तो इसमें आश्चर्य ही क्या ?
[१८] कालागुरु, कुंदरूक्क (सुगंधित पदार्थ विशेष ) एवं तुकिस्तानी धूप की विस्तृत सुगन्धि से मिश्रित रंगमंच से युक्त, फहराती हुई ध्वजापताकाओं से युक्त, उल्लसित वन्दन - मालाओं से युक्त, त्रिमुहानियों, चौमुहानियों पर चर्चरी एवं चौमुखे होने वाले अपूर्व नाटकों से युक्त, बहुत से स्थानों पर स्थित पूर्णकलशों से युक्त, सैकड़ों सहचरों के साथ, बगीचे के आश्चर्यपूर्ण विकसित पुष्पों के समान विकसित कमलनेत्र वाली आरामशोभा के साथ नारी समहों के द्वारा प्रशंसित प्रियतमा के साथ महान विभूतियों से समृद्ध वह महाराज जितशत्रु पाटलिपुत्र में प्रविष्ट हुआ। उस आरामशोभा को एक अलग (विशिष्ट) राजमहल में ठहराया गया । ( उसके साथ) वह बगीचा भी संकुचित होकर राजमहल में चारों ओर दिव्य रूप में छा गया । राजा भी अपने समस्त कार्य-व्यापारों को छोड़ उसके साथ ( सुखद ) भोग भोगता हुआ, श्रेष्ठ जातीय देवों को भी तिरस्कृत करता हुआ, अपना समय क्षण के समान व्यतीत करने लगा ।
[१९] और इधर, आरामशोभा की सौतेली माँ के एक पुत्री उत्पन्न हुई । वह क्रम से युवावस्था को प्राप्त हुई । आरामशोभा को उस सुखद अवस्था में देखकर उस दुष्टा सौतेली माता ने अपने मन में विचार किया—“यदि किसी प्रयोजन से यह आरामशोभा मृत्यु को प्राप्त हो जाए, तब राजा इसके गुणों से आकृष्ट होकर मेरी पुत्री के साथ विवाह कर लेगा । तब मैं भी अपने मनोरथ रूपी वृक्ष को लगाने में पूर्ण सफल हो सकूँगी । ऐसा विचार कर उसने अपने कहा - "हे नाथ, पुत्री (आरामशोभा) के विवाह को हुए बहुत समय व्यतीत हो गया । अतः उसके लिए कुछ मिष्ठान्न आदि भेज देना
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