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मुनिचन्द कथानक
१६७ के दर्शन के लिए भेजा गया हूँ।' यह सुनकर मैंने कहा-'शीघ्र प्रवेश कराओ। तब द्वारपाल के द्वारा वह भेजा गया । लम्बी, चपटी नाक वाला, थोड़ी-थोड़ी लाल चंचल आँख वाला, मोटा और त्रिकोण सिर वाला, उठे हुए लम्बे दाँत वाला, लम्बे पेट वाला, लम्बी और पतली जाँघ वाला, सभी अंगों में शिराओं से युक्त होने वाला-वह साधु मेरे द्वारा देखा गया । वह साधु मेरे द्वारा प्रणाम किया गया। आशीष देकर अपने काष्ठ के आसन पर वह बैठ गया और उसने कहा-'हे राजपूत्र ! भैरवाचार्य के द्वारा मैं तुम्हारे पास भेजा गया हूँ।' (मैंने पूछा)
"भगवन् कहाँ पर ठहरे हैं ?' उसने कहा-'इस नगर के बाहर सराय में ठहरे हैं।' मैंने कहा-'हमारे लिए भैरवाचार्य दूर स्थित होते हुए भी हमारे लिए गुरू हैं। इसलिए उन भगवान् के द्वारा अच्छा किया जो यहाँ आये । आप पधारिये। प्रातःकाल में दर्शन करूंगा।'
ऐसा कहकर सन्यासी विसर्जित हुआ और चला गया। [६] दूसरे दिन प्रातःकाल मैं समस्त कार्य को करके भैरवाचार्य के दर्शन
के लिए उद्यान को गया। शेर के चमड़े पर बैठे हुए भैरवाचार्य मेरे द्वारा देखे गये । उनके द्वारा मेरा सत्कार हुआ और मैं उनके चरणों पर गिरा । आशीष देकर मृगछाल दिखाकर उन्होंने कहा कि बैठो। मैंने कहा-'हे भगवन् ! यह उचित नहीं है कि दूसरे राजाओं के समान मेरे साथ व्यवहार किया जाय। क्योंकि यह आपका दोष नहीं है । इस प्रकार से सैकड़ों राजाओं ने जिसका सत्कार किया है उस राजलक्ष्मी का दोष है। जिस कारण से आप जैसे भगवन् भी मुझ जैसे शिष्य को भी अपने आसन प्रदान करने के द्वारा इस प्रकार का व्यवहार करते हैं। हे भगवन् ! आप मेरे लिए दूर में स्थित होने पर भी गुरू हैं।' इसके बाद अपने आदमी के दुपट्टे पर मैं बैठ गया। थोड़ी देर में मैंने कहना प्रारम्भ किया-'हे भगवन् ! वह देश, नगर, गाँव अथवा प्रदेश जहाँ पर आपका प्रसंग इत्यादि भी आ जाते हैं कृतार्थ हो गया है और उस स्थान का तो कहना ही क्या जो आपके अंगों से छु जाते हैं। इसलिए मैं आपके आगमन से अनुगृहीत हूँ।' तब जटाधारी ने कहा'मेरे यहाँ भी गुणों को चाहने वाले सामान्य व्यक्ति भी प्रेमी व्यक्तियों के लिए पक्षपात करते हैं तो फिर तुम्हारे गुणों से कौन नहीं आकर्षित होता है और फिर तुम्हारे जैसे आये हुए लोगों के लिए हमारे जैसे फक्कड़ लोग क्या करें ? मेरे द्वारा जन्म से लेकर परिग्रह नहीं किया
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