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आरामशोभा-कथा
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योग्य होगा, क्योंकि उस कन्या का भी पितृगृह के इस उपहार से
चित्त प्रसन्न हो जायगा।" [२०] यह सुनकर उस भट्ट ब्राह्मण ने कहा-“प्रिये, उसे किसी भी वस्तु
की कमी नहीं है। यह मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि जिस प्रकार कल्पवृक्ष के लिए बेर तथा करीर आदि के फल भेजना, वैराग्यरस वाले (व्यक्ति) के शरीर को अलंकृत करना, मरू-पर्वत के लिए शिलाखण्डों द्वारा दृढ़ करना, सूर्य के लिए जगनुओं जैसी कीटों की उपमा देना उचित नहीं होता, ठीक उसी प्रकार विद्युत्प्रभा (आरामशोभा) के लिए हमारा मिष्ठान्न आदि का भेजना भी योग्य नहीं होगा, बल्कि उससे राजा के लोग मुंह पर हाथ रख-रखकर हँसेंगें।" यह सुनकर उस पापिनी ने पुनः कहा-"निश्चय ही उसे किसी वस्तु की कमी नहीं है, किन्तु भेंट भेजकर हमें तो तृप्ति होगी ही।" उसका अत्याग्रह देखकर ब्राह्मण ने भी "तथास्तु" कहकर
उसे स्वीकार कर लिया। [२१] ब्राह्मणी ने हर्षित मन से बहत प्रकार की सामग्री जुटाकर सिंहकेशरी
नामक लड्डू बनाये तथा उनमें विष मिला दिया। उन लड्डुओं को एक नवीन घड़े में रख दिया और उसके मुंह को बाँधकर उसने अपने पति से निवेदन किया। "रास्ते में कोई विघ्न उपस्थित न हो इसलिए इसे लेकर तुम स्वयं जाओ।" तब भेड़ के सीगों के समान कुटिल उसके मन को ठीक से न समझ सकने वाला वह वेदजड़ ब्राह्मण भी उस घड़े को अपने सिर पर रखकर जब प्रस्थान करने लगा, तब उस (ब्राह्मणी) ने कहा-"यह भेंट आरामशोभा के हाथों में ही देकर उससे कहना कि वत्से, इसे तुम ही खाना, किसी दूसरे को मत देना । अन्यथा मेरे इस विरूप क्षुद्र मिष्ठान्न को देखकर राजा के लोग हँसी-मजाक उड़ाएँगे।" वह ब्राह्मण भी "तथास्तु"
कहकर वहाँ से चल दिया। [२२] धीरे-धीरे चलते-चलते सन्ध्या हो जाने पर वह सो जाता और सोते
समय उस घड़े को अपने सिरहाने रख लेता। इस प्रकार कुछ ही दिनों में वह पाटलिपुत्र के निकटवर्ती एक महान् वटवृक्ष के नीचे पहुँचा तथा वहाँ भी वह उस घड़े को सिरहाने रखकर सो गया। इसी बीच देवयोग से वही पूर्वोक्त नागकुमार क्रीड़ा हेतु वहाँ आया एवं उस ब्राह्मण को देखकर विचार करने लगा-"यह व्यक्ति कौन
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