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५. मुनिचन्द कथानक [भरत क्षेत्र में घूमते हुए दोनों बलदेव-वासुदेव के द्वारा मुनिचन्द्र नामक अनगार को देखा गया। उसको देखकर बलदेव ने कहा-हे भगवन् ! प्रथम यौवन अवस्था में भोगों के परित्याग का कारण क्या है ? तब साधु के द्वारा कहा गया, हे स्वामी! संसार की विलासता को सुनो । ऐसा कह कर वह अपने चरित्र को कहने लगा।]
१] जम्ब द्वीप के भारतवर्ष में सोरियपुर नाम का नगर है। वहाँ
दढ़वर्मन् का गुणधर्म नाम का पुत्र रहता था। मैंने (गुणधर्म ने) विभिन्न प्रकार की कलाओं को ग्रहण किया था। और मैं राजा तथा पुरजनों के मन के लिए अत्यन्त प्रिय था।
एक बार बसन्तपुर के स्वामी के ईसानचन्द्र की लड़की कनकमती के स्वयंवर को सुनकर इच्छापूर्वक साथियों के साथ मैं वहाँ गया। वहाँ पहुँचने पर नगर के बाहर सराय में मुझे ठहराया गया और मैं स्वयंवर के मंडप में प्रविष्ट हुआ। वहाँ और बहुत से राजपुत्र भो आये। तब मैं राजकुमारो को दृष्टि के द्वारा देखा गया। तब राजकन्या की थोडी झकी हई, अधखुली दृष्टि फेंकने वाली, हृदयगत भावों की शोभा को सूचित करने वाली एवं प्रेम युक्त दृष्टि के द्वारा मैं देखा गया। मेरे द्वारा उसको जान लिया गया कि वह मुझे चाहती है। तब प्रातः काल में स्वयंवर होगा, ऐसा जानकर मैं अपने निवास स्थान को चला गया। दूसरे भी राजपूत्र अपने-अपने निवास स्थान को चले गये। इसी बीच रात्रि के प्रथम प्रहर में अधिक उम्र वाली दास-दासियों से घिरी हुई एक स्त्री आई। उस स्त्री के द्वारा समर्पित किए गये चित्रफलक पर चित्रित विद्याधर की लड़की का चित्र अंकित था
और उस चित्र के नीचे अभिप्राय को सूचित करने वाली एक गाथा लिखी हुई थी
गाथा १. 'आपके प्रथम दर्शन से उत्पन्न प्रेम रस में डूबी हई सभी कुछ गवाने वाली मुग्धा नायिका के द्वारा किसी न किसी प्रकार से हृदय को धारण किया जा रहा है।'
* अनुवादक-डॉ० प्रेम सुमन जैन, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर ।
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