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प्राकृत भारती उसे छोड़ा नहीं। तब उसने प्रारम्भ से अपनी सौतेली माता के सभी
कुकृत्यों को कह सुनाया। इसी में सूर्योदय हो गया। [४१] उसी समय उसके केशपाश में रहकर (निरन्तर) आश्वस्त रखने
वाला वह सर्प उपदित होकर भूमि पर गिर पड़ा। उसे देखकर वह बाला विषादरूपी पिशाच से ग्रस्त होकर तत्काल ही मूच्छित हो नेत्र निमीलित कर टूटी हुई शाखा के समान जमीन पर गिर पड़ी। शीतलोपचार से जब उसकी मूर्छा टूटी तभी राजा ने उससे कहाप्राणेश्वरी, किस कारण से तुमने अपने को विषादरूपी समुद्र में डाल दिया है ?" तब उसने कहा-"स्वामिन्, पिता के समान हितकारी यह नागकुमार देव, जो कि निरन्तर मेरे पास रहता रहा, उसने मुझसे कहा था-"मेरे आदेश के बिना सूर्योदय पर्यन्त यदि तुम अन्यत्र रहोगी, तो उसी क्षण से तुम्हें मेरा दर्शन न हो सकेगा। वेणी से मृतसर्प गिरेगा। अतः हे नाथ, आपने मुझे जो नहीं जाने दिया, उसी कारण ऐसा हो गया है।" उसके बाद से (वरदान-विहीन होकर) वह वहीं
रहने लगी। ४२ प्रातःकाल होते ही उसकी बहिन को बिना किसी दया के रस्से से बांधकर जब राजा ने कोड़े से पीटना प्रारम्भ किया, तभी स्वभाव से सरल आरामशोभा के चरणों में गिरकर वह उससे अपने को बचा लेने की प्रार्थना करने लगी। आरामशोभा ने भी राजा से निवेदन करते हुए कहा
गाथा १८-“हे स्वामिन्, यदि आप मेरे ऊपर कृपा कर सकें, तो मेरी इस बहिन को छोड़ दें। हे हृदयेश्वर ! दया करके उसे पूर्ववत् ही समझें और प्रेम करें।
गाथा १९-राजा ने भी उत्तर में कहा-“हे देवि, बात ऐसी ही है । यद्यपि इस दुष्ट-चित्त वाली को जीवित छोड़ना उचित नहीं, तथापि तुम्हारा वचन भी दुर्लंघ्य है।"
गाथा २०–राजा ने उसे (कृत्रिम आरामशोभा को) छोड़ दिया एवं आरामशोभा को अपने समीप में ही रख लिया । (इस उदाहरण के
माध्यम से) सज्जनों एवं दुर्जनों की विशेषता को प्रत्यक्ष ही देख लो। [४३] तब प्रचण्ड अग्नि की तरह प्रज्वलित उस राजा ने अपने आदमियों
को बुलाकर आदेश दिया-"उस अग्निशर्मा ब्राह्मण से बारहों ग्रामों
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