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प्राकृत भारती
ही उसने पुत्री को उपहार देकर राजा से इस प्रकार विनती की'पूत्री को मेरे घर भेज दीजिए।" राजा ने जब उसकी बात बिलकुल ही न मानी, तब वह यमराज की जिह्वा के समान छुरी को अपने पेट के ऊपर रखकर चिल्लाने लगा-“यदि मेरी पुत्री को न भेजोगे, तब यहीं पर आत्मघात कर लंगा। "राजा ने उसका निश्चय जानकर
विस्तृत परिवार एवं सेवकों के साथ आरामशोभा को विदा कर दिया । [२९] तदनन्तर, आरामशोभा के प्रकृष्ट पुण्य-प्रताप को समझे बिना ही
उसे आती हुई सुनकर सौतेली माता ने हर्षपूर्वक अपने भवन के पीछे, एक भारी कुंआ खुदवाकर, कुछ प्रपंच की बात मन में रखकर, उसके बीच में बने हुए भूमिगृह में अपनी पुत्री को ठहरा दिया। इसके बाद, सौतेली माता भी सपरिवार आई हुई उस आरामशोभा के सम्मुख अपने
अभिप्राय को छिपाती हुई किंकर्तव्यविमूढ़ रहने लगी। [३०] आरामशोभा ने देवपुत्र के समान एक कुमार को जन्म दिया।
अन्य किसी समय देववश परिजनों के दूर रहने पर समीप में स्थित सौतेली माता उसे शारीरिक क्रियाओं की निवृत्ति हेतु घर के पिछले दरवाजे की ओर ले आई।
आरामशोभा ने भी वहाँ खोदे गये कुँए को देखकर कहा-" माँ, इसे कब खुदवाया है, यह तो बड़ा ही सुन्दर एवं गहरा है ?" यह सुनकर वह अत्यन्त दिखावटी प्रेम प्रदर्शित करती हुई बोली-“वत्से, तेरा आगमन जानकर ही मैंने इसका निर्माण कराया है, जिससे कि पानी लाने के लिए बहुत दूर जाने का कष्ट न उठाना पड़े।" तब वह आरामशोभा कौतुहलपूर्वक कुँए में झाँककर देखने लगी। उसी समय उस क्षुद्र हृदया दुष्टचित्ता ने उसे धक्का दे दिया, जिससे कि वह मुँह के
बल ही ( कुंए में ) गिर पड़ी। [३१] उसी समय आपत्ति में पड़ी हुई आरामशोभा ने नागकुमार देव का
स्मरण किया । उस देव ने भी वहाँ प्रकट होकर उसे पानी के ऊपर ही अपने हाथों में लेकर कँए के मध्य में निर्मित पाताल-भवन में ठहरा दिया। उसका बगीचा भी दैवीप्रभाव से वहीं स्थिर हो गया तथा वह नागकुमार देव ब्राह्मणी के ऊपर क्रोध करता हुआ "( यहाँ से ) यात्रा का प्रयत्न न करना ।" ऐसा कहकर तथा उसे सान्त्वना आदि देकर अपने स्थान चला गया।
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