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४. आरामशोभा-कथा
[श यहीं पर जम्बू नामक वृक्ष से अलंकृत द्वीप (जम्बद्वीप) के मध्य में
स्थित, अखंड छह खंडों से सुशोभित, विभिन्न प्रकार के सुख-समूहों के निवास स्थान भारतवर्ष में, सभी प्रकार को लक्षिनयों से समृद्ध कूशार्त नाम का एक देश था। वहाँ प्रमुदित, क्रीड़ाओं से युक्त लोगों से मनोहर, तेजस्वी क्षत्रिय-जाति में उत्पन्न के समान, शुभ्र एवं सुंदर एवं समस्त धान्यों से अभिराम बलासक नामक ग्राम था । जहाँ चारों दिशाओं में एक योजन प्रमाण भूमि-भाग में कहीं भी
किसी भी प्रकार के वृक्ष आदि नहीं उगते थे । [२] उस बलासक ग्राम' में चारों वेदों में पारंगत तथा छह कर्मों का
साधक अग्निशर्मा नामक एक ब्राह्मण निवास करता था । शीलादि गुणों से अलंकृत अग्निशिखा नाम की उसकी पत्नी थी। उनके परमसौभाग्य से, सुखभोगों के बाद समयानुसार एक पुत्री का जन्म हुआ। माता-पिता ने उसका नाम विद्युत्प्रभा रखा ।
गाथा १.-जिसके सुंदर चंचल नेत्रों के सम्मुख नीलकमल भी किंकर के समान तथा पूर्णमासी का चंद्रमा जिसके मुख की निर्मल लीला को निरंतर धारण करता था, जिसके नासाभाग के सम्मुख शुकपक्षी की चोंच भी अकुशल (अपडू) एवं शोभाहीन प्रतीत होती थी तथा जिसके सौंदर्य को देखकर अप्सराएँ भी निश्चय ही
म्लानमुख हो जाती थीं। [३] तदनंतर क्रमशः विद्यत्प्रभा के आठ वर्ष के होने पर देव के वश से
रोग आदि से ग्रस्त होने के कारण उसकी माता अग्निशिखा का स्वर्गवास हो गया। इस कारण उसके घर का समस्त कार्यभार उसी पर आ पड़ा । प्रातःकाल उठकर वह गोदोहन से निपटकर घर की सफाई करती (और) गायों को चराने के निमित्त चली जाती थी। मध्याह्न में पुनः गोदाहन कर पिता के लिए देवपूजा एवं भोजनादि
* अनुवादक-डॉ० राजाराम जैन, आरामसोहाकहा, आरा, १९८९, पृ०
२३-५६।
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