Book Title: Prakrit Bharti
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 160
________________ बारामशोभा-कथा १५१ [१०गारुडिकों के चले जाने के पश्चात् विद्युत्प्रभा ने उस सर्प से कहा "अब तुम यहाँ से निकलो, तुम्हारे बैरी यहाँ से चले गये हैं।" वह सर्प भी उसकी गोदी से निकलकर अपना नागरूप छोड़कर कुण्डल आदि आभूषणों से सुसज्जित सुर रूप को प्रकट होकर बोला-"वत्से। कोई वरदान माँगो, क्योंकि मैं तुम्हारे उपकार एवं साहस से संतुष्ट हूँ।" विद्युत्प्रभा भी उस नागकुमार के देवरूप एवं भास्कर शरीर को देखकर हर्ष-प्रपूरित हो विनयपूर्वक बोली-“हे तात, यदि सचमुच ही आप संतुष्ट हैं, तब मेरे ऊपर (ऐसी) छाया कीजिये, जिससे सूर्य-ताप से बचकर सुखपूर्वक शीतल-छाया में बैठकर गायों को चरा स.।" [११] यह सुनकर देव अपने मन में विस्मित हुआ और विचार करने लगा कि-"अरे ! यह बेचारी कैसी सरल स्वभावी है, जो मुझसे भी ऐसा (तुच्छ) वरदान माँगती है। किन्तु कोई बात नहीं, मैं इसकी यह अभिलाषा भी पूर्ण कर देता हूँ और उसने उसके (शरीर के) ऊपर एक ऐसा बगीचा बना दिया, जो महाशालवृक्षों से सुशोभित भ्रमरों से युक्त विकसित पुष्प वाला, ध्वजापताकाओं एवं मनोहर संगीत से युक्त, सुन्दर शीतल छाया वाला और सरस फलों से निरन्तर प्राणिसमूहों को सन्तुष्ट करता रहे । तत्पश्चात् देव ने उसे निवेदन किया-"पुत्री, जहाँ-जहाँ तुम जाओगी, वहाँ-वहाँ महिमाशाली यह बगीचा भी तुम्हारे साथ-साथ चलेगा और घर में रहते समय तुम्हारी इच्छापूर्वक अपने आप छोटा बनकर छाते के समान ही यह तुम्हारे ऊपर छाया रहेगा। किसी भी प्रकार के विपत्ति-काल में मेरी आवश्यकता होने पर तुम मेरा स्मरण करना । मैं तुरन्त चला आऊँगा।” इस प्रकार कहकर वह नागकुमार अपने स्थान को लौट गया। [१२] वह विद्युत्प्रभा भी उस बगीचे के अमत के समान सरस फलों को यथेच्छ खाती हुई, अपनी भूख-प्यास को शांत करती हुई पूरे दिन वहीं रहने लगी। रात्रि में पुनः गायों को मोड़कर (वापिस लेकर) अपने भवन में लौटती। यह बगीचा भी उसके घर में छाया कर चारों ओर स्थित हो जाता। माता उससे कहती-“पुत्री, भोजन कर लो" यह सुनकर वह निर्भयतापूर्वक कहती है-"आज मुझे भूख नहीं है।" यह कहकर वह अपने बिस्तर पर सुख की नींद सो जाती। प्रातःकाल होने पर वह पुनः गायों को लेती और जंगल में चली Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268