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आरामशोभा-कथा
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कराकर (बाद में) स्वयं भोजन करती और पुनः गायों को चराकर संध्याकाल घर लौटती, तब प्रादोषिक कृत्यों को करके कुछेक क्षणों के लिए ही सोती थी । इसी प्रकार प्रतिदिन गृहकार्यों को करती हुई तथा उनसे थककर उसने अवसर पाकर अपने पिता से कहा - है पिता, गृहकार्यों से मैं बहुत ऊब गई हूँ । अतः कृपा कर आप अपना दूसरा विवाह कर लीजिए । "
[४] अपनी पुत्री विद्युत्प्रभा सुखद वचन सुनकर उसने प्रसन्नचित होकर विषवृक्ष लता के समान एक ब्राह्मणी के साथ विवाह कर लिया किन्तु वह स्वभावतया विलासिनी, खाने-पीने की लालची, आलसी एवं कुटिल थी । अतः उसने घर के सभी काम-काज विद्युत्प्रभा पर ही थोप दिये एवं वह स्वयं स्नान, विलेपन, भूषण भोजनादि भोगों में व्यस्त रहने लगी । वह सौतेली माता अन्य कार्यों में अपने शरीर को मोड़ना भी नहीं चाहती थी ।
यह सब देख विद्युत्प्रभा बिजली की तरह प्रज्जवलित होती हुई विचार करने लगी- “अरे, मेरे सुखों के निमित्त पिता ने जो कुछ किया है, वह तो नरक के समान दुखों का कारण बन गया। अब अदृश्य इन दुष्ट कर्मों से छुटकारा न मिलेगा, दूसरे तो फिर निमित्त मात्र ही होते हैं । " क्योंकि -
गाथा २ – “सभी को पूर्वकृत कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है । अपराधों अथवा गुणों में दूसरे लोग तो निमित्त मात्र ही होते हैं । "
गाथा ३ - " जिससे, जिसके द्वारा, जिस प्रकार, जब और जो, जब तक, जहाँ शुभ एवं अशुभ आत्मा के कर्मों का बन्ध होता है, उससे, उसके द्वारा, उस प्रकार उस समय, उसे, अपने वहाँ यमराज के वशीभूत हो जाना पड़ता है ।"
[५] इस प्रकार वह विद्युत्प्रभा अन्यमनस्क ( व्याकुल चित्त) हो प्रातः काल ही गायों को चराकर, मध्याह्न में रसविहीन, (चलित रस ) ठण्डा, रूखा-सूखा, सैकड़ों मक्खियों से व्याप्त, खाने के लिए रखा गया भोजन करती थी एवं इसी प्रकार दुःख का अनुभव करते हुए उसके बारह वर्ष व्यतीत हो गये ।
[६] अन्य किसी दिन दोपहर के समय सुगंधियुक्त घास पर विचरते - विचरते ग्रीष्मकालीन प्रखर सूर्य किरणों के संताप से संतप्त, वृक्षों के
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