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“प्राकृत भारती ३५. रोती हुई उस कमलश्री को आश्वस्त कर उन्होंने उससे आने का कारण
पूछा । उसने भी अपने पति के समस्त दुर्व्यवहार को कह सुनाया। ३६. इसी बीच समस्त वृत्तान्त सुनकर भविष्यदत्त भी अपनी माँ के पास
जा पहुँचा । उसे देखकर कमलश्री (माँ) ने कहा- “पुत्र ! यहाँ आकर
तुमने ठीक नहीं किया।" ३७. "हे पुत्र ! तुम्हारे पिता ने यद्यपि किसी दोष-विशेष से मझे निकाल
दिया है, तो भी पितृगृह छोड़कर तुमने उपयुक्त कार्य नहीं किया।" ३८. यह सुनकर भविष्यदत्त ने कहा-“हे माँ ! तुम्हें इस प्रकार नहीं
कहना चाहिए। क्योंकि माँ के विरह में पिता भी चाचा के समान
स्वभाव वाला हो जाता है।" ३९. माँ के समीप रहता हुआ वह भविष्यदत्त वहीं व्यापार करने लगा। वह
शीघ्र ही समस्त कलाओं में कुशल हो गया एवं अपने मधुर व्यवहार
से उसने सभी को सन्तुष्ट कर दिया। ४०. उसी नगर में वरदत्त नाम का एक सेठ रहता था। उसकी पत्नी का
नाम मनोरमा था। उसकी नागकन्या के समान श्रेष्ठ सौन्दर्य से युक्त
नाग-स्वरूपा नाम की एक पुत्री थी। ४१. धनपति द्वारा माँगे जाने पर वरदत्त ने उस कन्या का विवाह उसके
साथ कर दिया। उससे बन्धुदत्त नाम का एक पुत्र उत्पन्न हुआ। ४२. वह पुत्र अत्यन्त सुन्दर तथा छविवान् था। समयानुसार वह युवावस्था
को प्राप्त हुआ। एक दिन उसके साथियों ने एकान्त में बुला कर
उसे कहा४३. "यवावस्था में जो व्यक्ति अपनी भुजाओं के बल से सम्पत्ति नहीं
कमाता, वह वृद्धावस्था में दूसरों के (प्रगतिशील) कार्यों को देख-देख
कर झूरता रहता है।" ४४. “पहली आयु (युवावस्था) से लेकर अन्त (मृत्यु) के आठ मास पूर्व तक
इस संसार में कुछ न कुछ पुरुषार्थ अवश्य करना चाहिए, जिससे
अन्तकाल में सुख और संतोष प्राप्त हो सके।" ४५. “जो व्यक्ति पहले कमाये गये धन का घर में बैठी-बैठी महिला के
समान भोग करता है, वह व्यक्ति पुरुषार्थी एवं वीर नहीं बल्कि पुरुष नामधारी महिला मात्र ही है । उसे इस संसार में लेशमात्र भी लज्जा का अनुभव क्यों नहीं होता ?"
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