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३. प्राकृत नाटक साहित्य :
प्राकृत भाषा में काव्य एवं कथा ( चरित) के कई ग्रन्थ उपलब्ध हैं । साहित्य की एक तीसरी विधा भी है--नाटक । नाटक जन-जीवन का प्रतिहोता है । उसकी वेषभूषा, रहन-सहन, संस्कृति आदि नाटकों में प्रस्तुत की जाती है । अतः जनभाषा प्राकृत को भी नाटकों में उपस्थित करने के लिए प्राचीन नाटकों के पात्र प्राकृत में बातचीत करते हैं । भरतमुनि ने कई प्रकार के रूपकों ( नाटकों ) का उल्लेख किया है । उनमें से कई - प्रहसन, भाण, सट्टक, रासक आदि प्राकृत भाषा में रहे होंगे । किन्तु आज वे उपलब्ध नहीं हैं । उनमें से केवल मृच्छकटिकं प्रहसन आज उपलब्ध है, जिसमें सर्वाधिक प्राकृत भाषाओं का प्रयोग हुआ है । मृच्छकटिक के गद्य सरस एवं काव्यात्मक हैं ।
प्राकृत भारती
प्राकृत में सम्पूर्ण रूप से लिखे गये सट्टकों की परम्परा आज उपलब्ध है । १०वीं शताब्दी के राजशेखर द्वारा लिखित सट्टक कर्पूरमंजरी प्राकृत
प्रतिनिधिक है । यह नाटक का लघु संस्करण कहा जा सकता है । इसके अतिरिक्त १७-१८वीं शताब्दी में भी प्राकृत में कई सट्टक लिखे गये हैं । इनको विषयवस्तु प्रेमकथा है । इन सट्टकों में भी प्राकृत गद्य का अच्छा प्रयोग हुआ है ।
इनके अतिरिक्त प्राचीन नाटककारों के नाटकों में भी अधिकांश पात्र प्राकृत बोलने वाले हैं । अतः बिना प्राकृत के ज्ञान के उन नाटकों को समझना कठिन है | महाकवि भास के नाटक अविमारक में विदूषक सन्ध्या का वर्णन करते हुए कहता है
अहो अस्स सोहासंपदि । अत्थं आसादिदो भअवं सुथ्यो दोसइ दहिपिंडपंडरेस पासादेस अग्गापणालिन्देस पसारिअगुलमहर संगदो विअ ।
कालिदास के नाटक अभिज्ञानशाकुन्तलं में शकुन्तला प्राकृत में वार्ता - लाप करती है । दुष्पन्त के प्रेम को वह नहीं जानती, किन्तु अपने हृदय में उसके प्रति प्रेम का अनुभव करती हुई विरह में दुखी शकुन्तला कहती है-
तुम्झण जाणो हिअअं मम उण कामो दिवापि रत्तिम्मि । णिग्घिण तवइ बलोअं तुइ वुत्तमणोरहाइ अंगाई ॥ इसी तरह श्रीहर्ष, भवभूति, विशाखदत्त आदि भारत के प्राचीन
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