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प्राकृत भारती
के लिए उद्यत प्रणम्यशील सुर-असुर के सिरों से घिसे हुए नुपुर युक्त गोरी के चरणों को नमन करो ।
१०. कठोर धनुष खींचने से परिश्रम द्वारा पसीने के जल से भींगे हुए तथा केसर के रस से युक्त चण्डी के कंचुक वस्त्र हम लोगों की सदैव रक्षा करें।
११. चन्द्रमा की किरणों से युक्त तथा प्रकट हुए रुद्र के अट्टहास की तरह सफेद गंगा का जल-समूह तुम्हारे पापों को नाश करे । १२. वे विचारशील सज्जन रूपी सूर्य सदा जयवंत हैं, जिनके सुवर्ण ( अच्छे शब्द ) संचय से एवं जिनके संगम ( संगति ) से दोष रहित कथानुबन्ध कमलाकर की तरह विकसित होते हैं ।
१३. वह ( ब्रह्मा ) जयवंत हों, जिसने इस संसार में सज्जन और दुर्जन बनाए हैं, क्योंकि तम ( अन्धकार ) के बिना चंद्र किरणें भी परिभाव ( गुणोत्कर्ष ) को नहीं पाती हैं ।
१४. पर कार्य में व्याप्त मन वाले दुर्जन और सज्जनों को सदैव नमन हो, एक (दुर्जन) भसण-स्वभावी ( व्यर्थ का प्रलाप करने वाले ) और अन्य ( सज्जन ) दूसरों के दोषों को कहने से दूर रहने वाले हैं । १५. अथवा सकल जीव लोक में कोई भी दोष नहीं दिखाई पड़ रहा है । सभी सज्जन जन ही हैं । अतः जो हम कहते हैं उसे सुनो।
१६. सज्जन की संगति से भी दुर्जन की कलुषिमा दूर नहीं होती है । चन्द्रमा के मध्य में परिस्थित कुरंग ( मृग ) भी काला ही है ।
१७. दुर्जन संगति से भी सज्जन के शील का नाश नहीं होता है । स्त्री के सलोने (नमकीन) मुख पर भी उसके अधर ( ओंठ ) मधु (मधुरता ) बहते हैं ।
१८. बालजनों की तरह विलसित निरर्थक वचन-प्रसंग असम्बद्ध प्रलाप के परिग्रह के अनुबन्धन से मुक्त रहा जाए । कविकुल वर्णन :
१९. तीन वेद, तीन होमाग्नि के सम्पर्क से उत्पादित देव-संतोष तथा त्रिवर्ग - फल प्राप्त बहुलादित्य नामक ( ब्राह्मण ) था ।
२०. आज होमाग्नि ( यज्ञ अग्नि ) से प्रसारित ( फैले हुए ) धूम शिखा के कलुषित जिसके वक्षस्थल को भी चन्द्रमा मृग-कलंक के बहाने धारण कर रहा है ।
२१. उसकी (बहुलादित्य की ) गुण - रत्नों से युक्त महासमुद्र सदृश पत्नी
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