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१-लीलावती कथाक मंगलाचरण : १. हरि के हाथों की उन नख-पंक्तियों को नमन करो, ( जिनमें )
क्रोधयुक्त सुदर्शनचक्र दिखाई पड़ता है तथा जो हिरण्यकश्यप के
विशाल वक्षस्थल की हड्डियों में प्रविष्ट हुई थीं।। २. उन हरि ( विष्णु ) को नमन करो जिनका उस समय तीसरा पैर
तीनों लोकों को नापता हुआ अपने आप ही साकार से अनाकार
( आकाश ) में स्थित हो गया। ३. उस (हरि ) के लिए पुनः नमन करो, जिसके तिरछे मार्ग में स्थित
देहली लाँघने में असमर्थ चरण हैं तथा (जिन्हें देखकर ) चुपचाप
हलधर के द्वारा हँसा जा रहा है । ४. वही हरि जयवन्त हो जिसकी बादलों के सदृश काली एवं प्रलयकाल __ में बढ़े हुए यमराज के पास की तरह भुजारूपी अर्गला अरिष्ठासुर
के गले में पड़ी। ५. ( विष्णु के ) महासमुद्र के शयन पर लक्ष्मी के स्तनों से व्याप्त
कौस्तभ मणि के कंद के अंकूर रूप शेषनाग की फन-मणि की किरणें
हम लोगों की रक्षा करें। ६. यमार्जुन का भंजन, अरिष्ट का बलन, केशि का विदारण, कंस
और असुरेन्द्र का आकर्षण ( पतन ) और शैल ( पर्वत ) के धारक
हरि की भुजा को नमन करो। ७. कर्कश ( कठोर ) हाथ से पूरित आनन ( मुख ), कठिन हाथ से दृढ़
बंधन, केशि और किशोर का कदर्थन करने में उद्यत मधुमंथन की
जय हो। ८. वे जयवंत हैं जिन्होंने तीन लोक के संहार के आरम्भ गर्भित
( सुशोभित ) मुख से सातों ही समुद्र चुल्लू में स्थित आचमन की
तरह पी लिए। ९. गुरुतर भार से आक्रान्त महिषासुर के शिर की हड्डी को भंजन करने * अनुवादक-डॉ० उदयचन्द जैन, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर ।
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