Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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फिर भी यह 50-60 वर्ष पूर्व ही आता है। मुनि जयसुन्दरविजयजी शास्त्रवार्तासमुच्चय की भूमिका में पूर्वोक्त परम्परागत मान्य समय को पुष्ट करते हुए लिखते है- प्राचीन अनेक ग्रन्थकारों ने हरिभद्रसूरि को वि.सं. 585 में होना बताया है। इतना ही नहीं, किन्तु हरिभद्रसूरि ने स्वयं भी अपने समय का उल्लेख संवत् तिथि, वार, मास और नक्षत्र के साथ लघुक्षेत्र समास की वृत्ति में किया है। उस वृत्ति के ताडपत्रीय जैसलमेर की प्रति का परिचय मुनिश्री पुण्यविजय द्वारा सम्पादित जैसलमेर कलेक्शन, पृष्ठ 68 में इस प्रकार प्राप्त है। ‘क्रमांक-196 जम्बूद्वीपक्षेत्र-समासवृत्ति, पत्र 26, भाषा-प्राकृत-संस्कृत, कर्ता हरिभद्र आचार्य, प्रतिलिपिकाल सं. अनुमानत 14 वीं शताब्दी। इस प्रति के अन्त में इस प्रकार का उल्लेख प्राप्त होता है
इति क्षेत्रसमास वृत्तिः समाप्त। . विरचिता श्री हरिभद्राचायें।।छ।। लघुक्षत्रे समासस्य वृत्तिरेषा समासतः। रचिता बुध बोधार्थं श्री हरिभद्रसूरिभिः।।1।। पंचाशितिकवर्षे विक्रमतो व्रज्रति शुक्लपंचभ्याम्। शुक्रस्य शुक्रवारे शस्ये पुष्ये च नक्षत्रे ।।2।।
ऐसा ही उल्लेख संवेगी उपाश्रय के हस्तलिखित भण्डार में अनुमानतः 15 वीं शताब्दी में लिखी हुई क्षेत्रसमास की कागज की एक प्रति में उपलब्ध होता है, किन्तु मुनि जयसुन्दरविजयजी की निम्न सूचनानूसार जम्बूद्वीपक्षेत्र-समासवृत्ति का रचनाकाल 85 है, 558 नहीं। इत्सिंग आदि का काल निश्चित है, अतः धर्मकीर्ति के समय की ही समस्या नहीं है, अपितु सुनिश्चित समय वाले जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, जिनदासगणि महत्तर, सिद्धसेनगणि क्षमाश्रमण की भी है, क्योंकि इनमें से एक भी वि.सं. 585 के पूर्ववर्ती नहीं हैं, जबकि इनके नामोल्लेख सहित ग्रन्थावतरण हरिभद्र के ग्रन्थों में मिलते हैं। जिनभद्र का सत्र-समय 530, अर्थात् वि.सं. 665 प्राप्त होता है। यदि हरिभद्र उनके शिष्य हों, तो 30-40 वर्ष बाद, अर्थात् वि.सं. 700 के आस-पास होगा, अतः हरिभद्रसूरि का समय वि.सं. 585 किसी भी स्थिति में तर्कसंगत नहीं है। इसे शक्-संवत् मानें, तो हरिभद्र का काल वि.सं. 721 होगा, जो पूर्णतः विद्वानों द्वारा मान्य हैं। इस प्रकार हरिभद्र को जिनभद्र आदि के समकालीन मानने के लिए वि.सं. 585 को शक्-संवत् मानना होगा, तभी हरिभद्र का समय 8 वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध प्रामाणिक सिद्ध होगा। हरिभद्र की कृति दशवैकालिकवृत्ति में विशेषावश्यक की अनेक गाथाओं का समावेश होने के कारण यह भी स्पष्ट होता है कि हरिभद्र का सत्ता-समय विशेषावश्यकभाष्य के पश्चात् ही होगा। भाष्य का रचनाकाल शक्-संवत् 531 या उसके कुछ पहले का है, अतः 585 को भी शक्-संवत् मान लिया जाए तो दोनों में एकरूपता हो सकती है।
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