Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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क्यों नहीं माना जाए, लेकिन ऐसा परन्तु मानने पर हरिभद्र को भाष्यकार व चूर्णिकार से पूर्ववर्ती मानना होगा, इससे विद्वानों की जो मान्यता है, वह मान्यता खण्डित हो जाएगी।
यद्यपि प्रायः सभी पट्टावलियों में एवं लघु क्षेत्र समासवृत्ति में हरिभद्र का काल वीर - निर्वाण सं. 1055 माना जाता है, पट्टावलियों में चूर्णिकार जिनदास को भाष्यकार जिनभद्र का पूर्ववर्ती माना गया है, जो उचित नहीं है। 13
ऐसी स्थिति में दो ही विकल्प रह जाते हैं। पहला विकल्प, पट्टावलियों में कहे अनुसार हरिभद्र को जिनभद्र व जिनदास से पूर्व मानकर उनकी रचनाओं पर हरिभद्र के प्रभाव को सिद्ध करें, अथवा धूर्त्ताख्यान में आदि स्रोत को अन्य किसी पूर्ववर्ती की रचना होना सिद्ध करें । परन्तु यह तो निश्चित है कि धूर्त्ताख्यान पौराणिक-युग के पूर्व की कृति नहीं है। निशीथभाष्य व चूर्णि में उल्लेख होने से धूर्त्ताख्यान के मूल स्रोत की अन्तिम सीमा सातवीं शती के पश्चात् नहीं हो सकती है।
धूर्त्ताख्यान का काल ईसा की 5 वीं से 7 वीं शती के बीच ही हो सकता है। निश्चित तो नहीं कह सकते, पर अनुमान है कि हरिभद्र की गुरु- परम्परा जिनभद्र की हो, क्योंकि मुख-सुख के कारण या भ्रांतिवश जिनभद्र का जिनभट्ट या जिनदास का जिनदत्त हो गया हो, क्योंकि हस्तप्रतों में 'द' और 'ट' के लिखने में तथा 'स' और 'त' के लिखने में समानता ही दिखाई देती है । विद्वानों का यह भी मानना है कि प्रतिभाशाली शिष्य का गुरु भी प्रतिभा सम्पन्न होना चाहिए, जबकि हरिभद्र के पूर्व जिनभट्ट अथवा जिनदत्त के होने के अन्य कोई प्रमाण नहीं मिलते हैं, अतः हो सकता है कि धूर्त्ताख्यान हरिभद्र की प्रारम्भ की रचना हो और उसका उपयोग हरिभद्र के गुरुभ्राता सिद्धसेनगणि (छठवींशती) ने अपने निशीथभाष्य में एवं हरिभद्र के गुरु जिनदास महत्तर ने निशीथचूर्णि में किया हो ।
डॉ. सागरमल जैन ने अपने लेख में स्पष्ट रूप से कहा है कि हरिभद्र के गुरु जिनभद्र हों - यह मात्र मेरी कल्पना नहीं है। डॉ. हर्मन जैकोबी आदि अन्य कई विद्वानों ने भी हरिभद्र के गुरु का नाम जिनभद्र माना है। जिनभद्र के विशेषावश्यकभाष्य का रचनाकाल कुछ विद्वानों ने जैसलमेर भण्डार में उपलब्ध प्रतिलिपि के आधार पर शक्-संवत् 531 के आस-पास माना है। यदि हम जिनभद्र का सत्ताकाल शक्-संवत् 531 मानें, तो वि.सं. की दृष्टि से उनका सत्ताकाल वि.सं. 531+136=667 आता है, किन्तु हरिभद्र उसके 25-30 वर्षों में भी हो सकते हैं, जो विद्वानों की मान्यता के निकट है, किन्तु लगभग उससे 50-60 वर्ष पूर्व है।
दूसरे, यदि हेमचन्द्र के अनुसार वीर-निर्वाण सं. विक्रम संवत् के 410 वर्ष पूर्व मानें, तो हरिभद्र का काल 1055-410=645 आएगा। यह भी वर्तमान में विद्वत्-वर्ग की मान्यता के अति निकट तो है,
13 डॉ. सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, ले. समदर्शी आचार्य हरिभद्र (डॉ. सागरमल जैन), पृ. 666
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