Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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" पणपत्र दस सएहिं हरिभद्र आसि तत्थ पुव्व कई । "
वीर- निर्वाण के 470 वर्ष बाद वि.सं. प्रारम्भ होता है। उसके अनुसार (470+585 = 1055)
हरिभद्र का समय होता है।
इसका समर्थन निम्न दो प्रमाण भी करते हैं
1. मुनि सुन्दरसूरि ने तपागच्छ गुर्वावली में हरिभद्र को 'मानदेवसूरि' द्वितीय का मित्र बताकर हरिभद्रसूरि का समय विक्रम की छठवीं शती का उत्तरार्द्ध बताया है। चूंकि मानदेवसूरि (द्वितीय) का समय छठवीं शताब्दी है, अतः यह समय उक्त परम्परागत अवधारणा से संगति रखता है । "
2. इस समय के पक्ष में दूसरा महत्वपूर्ण प्रमाण डॉ. सागरमल जैन ने 'हरिभद्रसूरि का धूर्त्ताख्यान' के आधार पर प्रस्तुत किया है। मुनि जिनविजयजी ने धुर्त्ताख्यान का कहीं भी उल्लेख नहीं किया, परन्तु इस तथ्य के शोध में डॉ. सागरमल जैन का सराहनीय श्रम रहा । " धुर्त्ताख्यान के समीक्षात्मक अध्ययन में प्रो. ए. एन. उपाध्याय ने अज्ञात मरुगुर्जर में निबद्ध धुर्त्ताख्यान व संघ तिलक के संस्कृत धूर्त्ताख्यान पर हरिभद्र के प्राकृत धुर्त्ताख्यान के प्रभाव की चर्चा की है। उन्होंने प्राकृत धुर्त्ताख्यान को हरिभद्र की मौलिक कृति माना है। यदि यह ग्रन्थ हरिभद्र का माना जाए तो यह भी निश्चित है किनिशीथभाष्य एवं निशीथचूर्णि की रचना से पूर्व की यह रचना है, क्योंकि यह कथानक इन दोनों ग्रन्थों में उपलब्ध है। निशीथभाष्य में निम्न रूप से यह कथा प्राप्त है
सस - एलासाढ - मूलदेव, खण्डा य जुण्ण उज्जाणे । सामव्यणे को भत्तं अक्खात जो ण सद्दहति । । चोर भया गावीओ, पोट्टलए बंधिऊण आणेमि । तिलअइरूढ़ कुहाडे, वणगय मलणा य तेल्लोदा ।। वगयपाटण कुंडिय, छम्माय हत्थिलग्गणं पुच्छे । राय रयग मो वादे, जहि पेच्छइ ते इमे वत्था । ।
भाष्य की उपर्युक्त गाथा से यह स्पष्ट होता है कि भाष्यकार को सम्पूर्ण कथानक ज्ञात है। वे इसे मृषावाद के उदाहरण रूप में प्रस्तुत करते हैं, अतः यह सत्य कि उक्त आख्यान मूल ग्रन्थ का उत्स नहीं हो सकता। यह आख्यान भाष्य से पूर्ववर्ती है, चूर्णिभाष्य पर टीका है, अतः वह भी आख्यान के अन्त में लिखा है।
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निशीथभाष्य और चूर्णि से पूर्व रचित किन्हीं भी ग्रन्थों में यह आख्यान आया हो ऐसी जानकारी किसी भी विद्वान् की दृष्टि में नहीं है, तो यह प्रश्न उपस्थित होता है कि धुर्त्ताख्यान को हरिभद्र की कृति
11 डॉ. सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, ले. समदर्शी आचार्य हरिभद्र (डॉ. सागरमल जैन), पृ. 665
12 डॉ. सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, ले. समदर्शी आचार्य हरिभद्र (डॉ. सागरमल जैन), पृ. 665
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