Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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उन्होंने प्राकृत भाषा एवं साहित्य का अध्ययन जैन - परम्परा में दीक्षित होने के बाद किया होगा । इनके ग्रन्थों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि ये संस्कृत एवं प्राकृत भाषा के प्रकाण्ड विद्वान् रहे हैं, परन्तु पूर्व में उनके गुरु कौन थे इसकी चर्चा किसी भी ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं है।
हरिभद्र के लिए किंवदंती है कि इन्हें अपने विशद ज्ञान का अहंकार था और इसी विद्वत्ता के अहम् में आकर ही उन्होंने संकल्प लिया था कि जिसके द्वारा कथित विषय को मैं नहीं समझ पाऊँगा उसी काही शिष्यत्व अंगीकार कर लूँगा ।
जैन- अनुश्रुतियों में यह माना जाता है कि एक बार जब वे रात्रि में अपने घर की ओर लौट रहे थे, तब वयः स्थविर जैन - साध्वी के मुखारविन्द से निःसृत कुछ पंक्तियाँ उनके कानों में गूंजी, जो प्राकृतभाषा में थीं, परन्तु वे उनका अर्थ नहीं समझ पाए। जिन पंक्तियों का अर्थ वे नहीं समझ पाए वे पंक्तियाँ निम्न थीं
'चक्की दुगं हरिपणगं पणगं चक्की के सवो चक्की |
केसव चक्की केसव दुचक्की केसी अ चक्की अ । । "
उक्त गाथा के अर्थ को जानने की ललक लिए प्रातः काल की वेला में वे जैन उपाश्रय में साध्वीश्री के सम्मुख समुपस्थित हुए। अपने पूर्वकृत संकल्पानुसार साध्वीश्री के विरल व्यक्तित्व के समक्ष नतमस्तक हो उन्होंने पृच्छा की - "हे भगवती ! रात्रि में बोले गए निम्न पद का अर्थ मेरी बुद्धि से बाहर था, कृपया बताने की कृपा करें।" साध्वीश्री ने उन्हें अपने धर्मगुरु श्री जिनभट्ट या जिनभद्रसूरिजी का परिचय देकर उनके पास जाकर समाधान पाने का संकेत किया ।
साध्वीजी के निर्देशानुसार वे उनके धर्मगुरु के पास पहुँचे। ज्यो ही उनके दर्शन हुए, वे श्रद्धा से झुक गए और उपर्युक्त पद का अर्थ जानने की जिज्ञासा प्रकट | गुरु ज्यों ही नया चेहरा देखा, तत्काल पढ़ लिया कि आगन्तुक की जिज्ञासा सर्वसाधारण से भिन्न है, अतः उन्होंने हरिभद्र को अपनी सुप्त प्रज्ञा उद्घाटित करने के लिए सम्यक् पथ पर अग्रसर कर दिया, अर्थात् उनकी अर्थ जानने की पिपासा तो शान्त की, लेकिन अपितु उनमें आत्म-साधना की पिपासा को जगा दिया।
उन्हें चिन्तन के सागर में डुबकी लगाकर सम्यक् रत्न पाने के लिए सूत्र दे दिया कि "निष्काम्निस्पृह" साधना ही 'भवविरह' का मार्ग है, यही मोक्ष को प्रदान करने में सक्षम है। साथ ही स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि यदि जैन-शास्त्र व प्राकृत - शास्त्र का पूर्ण और प्रामाणिक अभ्यास करना हो, तो उसके लिए जैन- दीक्षा लेना आवश्यक है।
8 आवश्यकनिर्युक्ति गाथा-421
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